जम्मू-कश्मीर में नेशनल कॉन्फ्रेंस का दबदबा, कांग्रेस की गठबंधन में घटती हिस्सेदारी

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के गठबंधन में तनाव और दूरी बढ़ रही है। कांग्रेस को कैबिनेट और राज्यसभा चुनावों में हिस्सेदारी नहीं मिली, जिससे उसकी राजनीतिक मजबूरियां स्पष्ट हुईं। नेशनल कॉन्फ्रेंस की सत्तारूढ़ ताकत और कांग्रेस की कमजोर स्थिति इस गठबंधन की असंतुलित तस्वीर पेश करती है।

अजय कुमार, वरिष्ठ पत्रकार

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में गठबंधन और सियासी खेल हमेशा से ही उलझनों से भरा रहा है। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) और कांग्रेस का गठबंधन इस संदर्भ में खासा चर्चा में है, क्योंकि भले ही ये दोनों दल चुनाव साथ लड़े हों, लेकिन सरकार गठन के बाद कांग्रेस को कैबिनेट में जगह नहीं मिली। अब राज्यसभा चुनावों में भी कांग्रेस को अपनी हिस्सेदारी से वंचित रहना पड़ा है, जिससे सवाल उठते हैं कि आखिर नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस की यह ‘दोस्ती’ कैसी है?ताजा घटनाक्रम में कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष तारिक हामिद कर्रा ने साफ कर दिया कि कांग्रेस इस बार जम्मू-कश्मीर की चार राज्यसभा सीटों के चुनाव में हिस्सा नहीं लेगी। इसका कारण नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से सीट देने से इनकार ही रहा। कांग्रेस ने एक सुरक्षित एकल सीट की मांग की थी, जिसे नेशनल कॉन्फ्रेंस मानने को तैयार नहीं थी। इसके बदले नेशनल कॉन्फ्रेंस ने कांग्रेस को दो सीटों वाले संयुक्त चुनाव में से एक सीट की पेशकश की, जो कांग्रेस के लिए राजनीतिक रूप से सुरक्षित नहीं थी। ऐसे में कांग्रेस ने चुनाव लड़ने से मना कर दिया और अपने गठबंधन सहयोगी को सीट छोड़ दी।

यह सियासी मसला जम्मू-कश्मीर की राजनीतिक परिस्थितियों को और अधिक जटिल करता दिख रहा है। यह पहली बार नहीं है जब नेशनल कॉन्फ्रेंस और कांग्रेस के बीच गठबंधन के बावजूद दूरी बनी हो। पहले विधानसभा चुनावों में दोनों दल एक साथ थे, लेकिन सरकार बनने के बाद कांग्रेस को केवल दो कैबिनेट मंत्रियों की जगह की मांग थी, जबकि नेशनल कॉन्फ्रेंस ने केवल एक ही मंत्री पद देने की पेशकश की। इसके कारण कांग्रेस सरकार का हिस्सा बनने से इंकार कर चुकी है।राज्यसभा चुनावों में कांग्रेस की भूमिका को समझना जरूरी है। जम्मू-कश्मीर में चार राज्यसभा सीटें हैं और चुनाव आयोग ने तीन अलग-अलग चुनावों के लिए अधिसूचनाएं जारी की हैं। इनमें दो सीटों के लिए अलग-अलग मतदान होगा, जबकि बाकी दो सीटों के लिए संयुक्त मतदान होगा। कांग्रेस का साफ तौर पर कहना था कि वे केवल एकल सीट वाले चुनाव में हिस्सा लेंगी, जो सुरक्षित माना जा सकता था, लेकिन नेशनल कॉन्फ्रेंस ने उनकी यह मांग ठुकरा दी। परिणामस्वरूप कांग्रेस ने चुनाव लड़ने से किनारा कर लिया।

नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस बार तीन उम्मीदवारों के नाम पहले ही घोषित कर दिए हैं, जिनकी जीत उनके विधानसभा में मजबूत स्थिति के कारण लगभग सुनिश्चित है। चौथी सीट पर उनके उम्मीदवार को जीताने के लिए गठबंधन के अन्य सहयोगियों के समर्थन की आवश्यकता होगी, जिनमें पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, अवामी इत्तेहाद पार्टी और आम आदमी पार्टी के विधायक शामिल हैं। इस स्थिति में नेशनल कॉन्फ्रेंस का पलड़ा भारी है और कांग्रेस की सियासी स्थिति कमजोर।जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 88 विधायक हैं। नेशनल कॉन्फ्रेंस के पास 41 विधायक हैं, जो बहुमत से सिर्फ चार कम हैं। कांग्रेस के छह विधायक हैं, साथ ही निर्दलीय पाँच और सीपीआई(एम) का एक विधायक है। कांग्रेस यदि गठबंधन तोड़ भी लेती है, तब भी उमर अब्दुल्ला के लिए निर्दलीय और लेफ्ट के समर्थन के साथ सरकार चलाना संभव है। वहीं, बीजेपी के पास 28 विधायक हैं और उनके साथ न तो कांग्रेस का गठबंधन है और न ही नेशनल कॉन्फ्रेंस का। प्रदेश की अन्य छोटी पार्टियों और निर्दलियों की स्थिति भी किसी बड़े राजनीतिक बदलाव की संभावना को सीमित करती है।

कांग्रेस की सियासी मजबूरी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वह नेशनल कॉन्फ्रेंस के दबाव में रहने को मजबूर है। कांग्रेस के पास जम्मू-कश्मीर में कोई बड़ा राजनीतिक विकल्प नहीं बचा है और वह गठबंधन टूटने का जोखिम भी नहीं उठा सकती। उमर अब्दुल्ला इस स्थिति का फायदा उठाते हुए कांग्रेस को अपनी शर्तों पर रोक कर रखे हुए हैं। इस प्रकार गठबंधन का नाम तो है, लेकिन कांग्रेस की भागीदारी नगण्य और सीमित दिख रही है।इस परिदृश्य में कांग्रेस का राज्यसभा चुनाव से बाहर होना एक संकेत है कि वह सियासी मोर्चे पर कमजोर और असहाय हो रही है। कांग्रेस नेतृत्व ने नेशनल कॉन्फ्रेंस से बेहतर हिस्सेदारी की उम्मीद की थी, लेकिन जब यह पूरा नहीं हो सका, तो उसने दांव पीछे खींच लिया। राजनीतिक विश्लेषक इसे कांग्रेस की हिमाकत में कमी और नेशनल कॉन्फ्रेंस की सत्तारूढ़ स्थिति की मजबूती का परिणाम मानते हैं।

जम्मू-कश्मीर में सियासी समीकरण लगातार बदल रहे हैं, लेकिन इस गठबंधन में कांग्रेस की भूमिका अब संदेह के घेरे में है। नेशनल कॉन्फ्रेंस की ओर से गठबंधन को बरकरार रखते हुए कांग्रेस को सीमित कर दिया गया है। यह साफ है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस का दांव मजबूत है और वह सियासी ताकत के लिहाज से कांग्रेस से आगे है। ऐसे में कांग्रेस के लिए न तो कैबिनेट में जगह पाना आसान है और न ही राज्यसभा चुनावों में हिस्सेदारी।यहां यह भी देखना जरूरी है कि कांग्रेस के प्रदेश नेतृत्व ने स्पष्ट किया है कि वे सरकार में तभी शामिल होंगे जब जम्मू-कश्मीर को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलेगा। यह राजनीतिक मुद्दा भी कांग्रेस को सरकार से दूर रख रहा है और उन्हें मजबूर कर रहा है कि वे अपनी सियासी सीमाओं को स्वीकार करें। दूसरी ओर, नेशनल कॉन्फ्रेंस इस मुद्दे पर अधिक सक्रिय दिख रही है और वह केंद्र सरकार के साथ बेहतर तालमेल बनाए हुए है।अगले कुछ महीनों में जम्मू-कश्मीर की राजनीति में और भी बदलाव आ सकते हैं, लेकिन फिलहाल यह स्थिति साफ है कि नेशनल कॉन्फ्रेंस ही सियासी खेल का अगुवा है और कांग्रेस एक कमजोर गठबंधन सहयोगी। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने अपनी मजबूती साबित करते हुए राज्यसभा चुनाव के लिए तीन उम्मीदवारों को पहले ही मैदान में उतार दिया है, जबकि कांग्रेस को पीछे हटना पड़ा। यह राजनीतिक यारी फिलहाल अधूरी और असंतुलित दिखती है।

कुल मिलाकर, जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस की यह ‘यारी’ सिर्फ नाम की है। गठबंधन के दायरे में रहते हुए भी कांग्रेस अलग-थलग पड़ गई है। उमर अब्दुल्ला की सरकार में कांग्रेस की भूमिका सीमित होने के साथ-साथ राज्यसभा चुनावों में भी वह अपनी हिस्सेदारी खो चुकी है। यह स्थिति कांग्रेस की सियासी मजबूरियों और नेशनल कॉन्फ्रेंस की राजनीतिक ताकत की कहानी कहती है।आम जनता के लिए यह एक संकेत है कि जम्मू-कश्मीर की सियासत में गठबंधन का मतलब हमेशा एक साथ चलना नहीं होता। जब सत्ता की बागडोर एक दल के हाथ में हो, तो दूसरे दल की भागीदारी कमजोर पड़ सकती है। कांग्रेस को भी अपनी रणनीति पर पुनर्विचार करना होगा, वरना जम्मू-कश्मीर की राजनीति में उसका साया ही कम होता जाएगा।

Related Articles

Back to top button