निर्दलीयों, क्रॉस-वोटिंग और उपराज्यपाल के फैसलों से बदल सकता है राज्यसभा का खेल
जम्मू-कश्मीर में चार साल बाद राज्यसभा चुनाव 24 अक्टूबर 2025 को। एनसी गठबंधन और भाजपा के बीच सियासी शह-मात, निर्दलीयों, क्रॉस-वोटिंग और उपराज्यपाल के मनोनयन से नतीजे बदल सकते हैं। डॉ. फारूक अब्दुल्ला की वापसी और गठबंधन तनाव इस चुनाव को रोमांचक और निर्णायक बना रहे हैं।


जम्मू-कश्मीर की सियासत में एक बार फिर हलचल मची है। चार साल से ज्यादा समय से खाली पड़ी राज्यसभा की चार सीटों पर आखिरकार चुनाव की तारीख तय हो गई है। 24 अक्टूबर 2025 को होने वाला यह मतदान सिर्फ ऊपरी सदन में जम्मू-कश्मीर की आवाज को मजबूत करने का मौका नहीं है, बल्कि यह केंद्र शासित प्रदेश के सियासी समीकरणों को भी नया रंग देगा। 2019 में अनुच्छेद 370 के खात्मे के बाद जम्मू-कश्मीर को दो हिस्सों में बांटा गया एक विधानसभा वाला जम्मू-कश्मीर और दूसरा लद्दाख। तब से ये राज्यसभा सीटें फरवरी 2021 से खाली थीं, क्योंकि पीडीपी के मीर मोहम्मद फैयाज और नजीर अहमद लावे, भाजपा के शमशेर सिंह और पूर्व कांग्रेस नेता गुलाम नबी आजाद का कार्यकाल खत्म हो गया था। अब चुनाव आयोग ने तीन अलग-अलग अधिसूचनाएं जारी करके इस मुकाबले को रोमांचक बना दिया है। पहली दो सीटों पर अलग-अलग मतदान होगा, जबकि बाकी दो पर संयुक्त। यह तरीका राज्यसभा चुनाव की एकल संक्रमणीय मत (एसटीवी) प्रणाली को और पेचीदा बनाता है, जहां विधायक अपनी पसंद के क्रम में वोट डालते हैं, और अगर पहली पसंद का उम्मीदवार कोटा न पार करे, तो वोट आगे ट्रांसफर होते हैं।
चुनाव आयोग के मुताबिक, नामांकन 6 से 13 अक्टूबर तक होंगे, जांच 14 को, नाम वापसी 16 तक और मतदान 24 अक्टूबर को सुबह 9 से शाम 4 बजे तक होगा। शाम 5 बजे से गिनती शुरू होगी। यह चुनाव जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के बाद एक बड़ा कदम है, जो यह दिखाता है कि लोकतंत्र यहां कितनी मजबूती से जड़ें जमा रहा है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह चुनाव साफ-सुथरा रहेगा, या निर्दलीय विधायकों और उपराज्यपाल के दांव से सियासी उलटफेर होगा? जम्मू-कश्मीर विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं, लेकिन बडगाम और नगरोटा की दो सीटें खाली हैं, इसलिए फिलहाल 88 विधायक वोट डालेंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) गठबंधन के पास 53 विधायकों का मजबूत समर्थन है एनसी के 41, कांग्रेस के 6, पांच निर्दलीय और सीपीआई(एम) का एक। यह संख्या उन्हें तीन सीटें दिलाने के लिए काफी लगती है। वहीं, भाजपा के पास 28 विधायक हैं, जो एक सीट पर दावा ठोक सकती है। बाकी सात विधायक पीडीपी के तीन (वहीद पारा, यासिर रेशी, अब्दुल गनी), पीपुल्स कॉन्फ्रेंस का एक (सज्जाद गनी लोन), दो निर्दलीय (शब्बीर कूल, शेख खुर्शीद) और आम आदमी पार्टी का मेहराज मलिक (जो पीएसए के तहत हिरासत में हैं) किसी बड़े खेमे से अलग हैं। इनका झुकाव इस चुनाव का सबसे बड़ा रहस्य है।
नंबर गेम को आसानी से समझें तो एक सीट जीतने के लिए 45 वोट चाहिए ((88/2)+1), जबकि दो सीटों के संयुक्त चुनाव में 30 ((88/3)+1)। एनसी गठबंधन पहली दो अलग-अलग सीटों पर आसानी से कब्जा कर लेगा, क्योंकि उसके पास 53 वोट हैं। अगर भाजपा यहां उम्मीदवार न उतारे, तो ये सीटें निर्विरोध मिलेंगी। लेकिन तीसरी और चौथी सीट पर संयुक्त वोटिंग में असली जंग होगी। गठबंधन 29 प्रथम वरीयता वोट से तीसरी सीट पक्की कर लेगा, और बचे 24 द्वितीय वरीयता वोट चौथी सीट के लिए काम आएंगे। भाजपा के 28 वोट चौथी सीट पर मजबूत दावा पेश करते हैं, लेकिन अगर निर्दलीयों ने क्रॉस-वोटिंग की, तो सीन पलट सकता है। पीडीपी जैसे दल, जो एनसी से पुरानी रंजिश रखते हैं, लेकिन भाजपा से भी दूरी बनाए हुए हैं, यहां निर्णायक हो सकते हैं। सज्जाद गनी लोन जैसे नेता कश्मीर की स्थानीय सियासत में वजन रखते हैं, और उनके वोट किसी को भी जीत दिला सकते हैं। मेहराज मलिक की हिरासत भी सवाल खड़ा करती है क्या उनका वोट गिना जाएगा? यह सब एसटीवी सिस्टम में वरीयता ट्रांसफर को प्रभावित करेगा, जहां दूसरी या तीसरी पसंद के वोट जीत-हार तय करते हैं।
सबसे बड़ा ट्विस्ट है उपराज्यपाल मनोज सिन्हा का मनोनयन अधिकार। केंद्र सरकार ने हाल ही में हाईकोर्ट में साफ किया कि उपराज्यपाल बिना निर्वाचित सरकार की सलाह के पांच विधायकों को मनोनीत कर सकते हैं। ये दो कश्मीरी पंडित (एक महिला), एक पाक अधिकृत कश्मीर से विस्थापित और दो महिलाएं होंगे। अगर ऐसा हुआ, तो विधानसभा की संख्या 93 हो जाएगी, और कोटा बदल जाएगा एक सीट के लिए 47, दो के लिए 31। ये मनोनीत विधायक ज्यादातर भाजपा समर्थक माने जाते हैं, क्योंकि केंद्र का प्रभाव है। तब भाजपा की ताकत 28 से बढ़कर 33 हो जाएगी, और गठबंधन को मुश्किल हो सकती है। अभी तक मनोनयन नहीं हुआ, लेकिन अगर चुनाव से पहले हो गया, तो नंबर गेम पूरी तरह बदल सकता है। विपक्ष ने इसे जनादेश के खिलाफ बताया है। पीडीपी की महबूबा मुफ्ती ने इसे लोकतंत्र पर हमला कहा, जबकि एनसी के तनवीर सादिक ने इसे जनता की आवाज दबाने की साजिश करार दिया। कांग्रेस के रविंद्र शर्मा ने तो हाईकोर्ट में याचिका दायर कर दी है। यह मुद्दा राज्यसभा चुनाव को और गर्मा देगा, क्योंकि 2018 में भी ऐसे मनोनयनों ने सियासी तूफान खड़ा किया था।
उम्मीदवारों की दौड़ भी कम रोचक नहीं है। एनसी से डॉ. फारूक अब्दुल्ला का नाम सबसे आगे है। वे राज्यसभा के पुराने दिग्गज हैं, और उनकी वापसी गठबंधन के लिए बड़ा मनोबल बढ़ाएगी। सज्जाद किचलू जैसे युवा चेहरे भी मैदान में हैं, जो दक्षिण कश्मीर से आते हैं। कांग्रेस एक सीट की मांग कर रही है, और उसके प्रदेश अध्यक्ष तारिक हामिद कर्रा ने कहा कि आलाकमान रणनीति तय करेगा। अगर एनसी ने सीट दी, तो जम्मू या दक्षिण कश्मीर से कोई उम्मीदवार उतर सकता है। भाजपा अपनी रणनीति छिपा रही है, लेकिन सुनील कुमार शर्मा जैसे पूर्व विधायक या कोई नया चेहरा मैदान में हो सकता है। पीडीपी और छोटे दल भी उम्मीदवार उतार सकते हैं, लेकिन उनका जीतना मुश्किल है। कांग्रेस-एनसी गठबंधन में पहले से ही तनाव है हाल ही में कांग्रेस ने कैबिनेट में शामिल होने से इनकार किया था, और राज्यत्व बहाली जैसे मुद्दों पर मतभेद हैं। अगर राज्यसभा में सीट न मिली, तो गठबंधन टूट सकता है, जो राष्ट्रीय स्तर पर इंडिया ब्लॉक को प्रभावित करेगा।
यह चुनाव जम्मू-कश्मीर के लिए सिर्फ सीट भरने का मौका नहीं है, बल्कि इसके कई बड़े मायने हैं। कश्मीर घाटी में एनसी का दबदबा, जम्मू में भाजपा की मजबूत पकड़ और लद्दाख की अनसुनी आवाजें यह सब इस चुनाव में झलकेगा। राज्यसभा सदस्य दिल्ली में स्थानीय मुद्दे उठाएंगे, जैसे बेरोजगारी, पर्यटन की बहाली, सुरक्षा और पीएसए जैसे कानून। अगर क्रॉस-वोटिंग हुई, तो पुरानी परंपरा की तरह ‘घोड़े बेचने’ के आरोप लगेंगे। लेकिन उम्मीद है कि यह चुनाव लोकतंत्र को मजबूत करेगा, न कि सौदेबाजी का शिकार बनेगा। जम्मू-कश्मीर के लोग लंबे समय से शांति और तरक्की चाहते हैं यह चुनाव उसी दिशा में एक कदम साबित हो। अंत में, तीन सीटें एनसी गठबंधन और एक भाजपा की लगती हैं, लेकिन उपराज्यपाल का दांव और निर्दलीयों का रुख सब कुछ बदल सकता है। सियासी शह-मात का यह खेल देखने लायक होगा।



