जातिवाद पर सरकार की सर्जिकल स्ट्राइक, यूपी बना बदलाव की प्रयोगशाला

योगी सरकार ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के बाद जातिगत रैलियों, स्टिकरों, घोषणाओं और सोशल मीडिया पोस्ट पर सख्त रोक लगा दी है। पुलिस एफआईआर से लेकर गांवों के बोर्ड तक, अब जाति की कोई पहचान नहीं बचेगी। यूपी की राजनीति, जहां जाति ही सियासी समीकरणों की रीढ़ रही है, वहां यह फैसला हलचल मचाने वाला है। बसपा, सपा, भाजपा हर दल की रणनीति पर असर साफ है। क्या यह फैसला अंबेडकर और जयप्रकाश नारायण के सपनों को साकार करेगा या सिर्फ एक और राजनीतिक दांव साबित होगा?

अजय कुमार, वरिष्ठ              पत्रकार

उत्तर प्रदेश की राजनीति में जाति का नाम लेते ही सियासत का एक पुराना पन्ना खुल जाता है, जिसमें हर पंक्ति में वोटों की गणित, गठजोड़ की चालबाजी और सत्ता की कुर्सी की जंग साफ दिखती है। लेकिन 22 सितंबर 2025 को योगी आदित्यनाथ की सरकार ने एक ऐसा फरमान जारी किया, जो इस पन्ने को पलटने की कोशिश-सा लगता है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के 19 सितंबर के आदेश को आधार बनाकर प्रदेश में जातिगत रैलियों, सम्मेलनों और सार्वजनिक स्थानों पर जाति के प्रदर्शन पर पूरी तरह रोक लगा दी गई। अब न गाड़ियों पर जाति के स्टिकर दिखेंगे, न पुलिस की एफआईआर में किसी की जाति लिखी जाएगी, और न ही सोशल मीडिया पर जातिगत गौरव या नफरत फैलाने वाले पोस्ट बख्शे जाएंगे। यह कदम सुनने में समाज को जोड़ने वाला लगता है, लेकिन यूपी जैसे राज्य में, जहां जाति ही सियासत का आधार रही है, यह एक तूफान खड़ा कर सकता है। पंचायत चुनाव सिर पर हैं, 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारी जोरों पर है, और केंद्र ने अगली जनगणना में जातीय गणना की घोषणा कर रखी है। क्या यह रोक वाकई जातिवाद को जड़ से उखाड़ देगी, या सियासी दल नई चाल चलेंगे? 

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने एक मामले में जाति व्यवस्था को ‘राष्ट्र-विरोधी’ करार दिया। कोर्ट का कहना था कि जब पहचान के लिए आधार कार्ड जैसे तकनीकी साधन हैं, तो जाति का जिक्र क्यों? यह समाज को तोड़ता है और भेदभाव को बढ़ावा देता है। कोर्ट ने साफ कहा कि पुलिस के दस्तावेजों चाहे वह एफआईआर हो, गिरफ्तारी मेमो हो या चार्जशीट में जाति का कॉलम हटे। अब पिता के साथ मां का नाम भी लिखा जाएगा, ताकि लैंगिक समानता बनी रहे। थानों के नोटिस बोर्ड से जातिगत नारे मिटाए जाएंगे। गांवों में जहां ‘यादव टोला’ या ‘दलित बस्ती’ लिखे बोर्ड लगे हैं, उन्हें हटाने के आदेश हैं। गाड़ियों पर ‘जाट’, ‘गुर्जर’ या ‘ठाकुर’ जैसे स्टिकर लगाने वालों पर मोटर वाहन अधिनियम के तहत कार्रवाई होगी। राजनीतिक रैलियों पर सबसे सख्ती अब कोई दल ‘ब्राह्मण सभा’ या ‘दलित महासम्मेलन’ के नाम पर भीड़ नहीं जुटा सकेगा। अपवाद सिर्फ एससी/एसटी अत्याचार निवारण कानून से जुड़े मामलों में, जहां कानूनी जरूरत हो। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) से भी जाति कॉलम हटाने के लिए पत्र लिखा गया है। सरकार ने जैसे जाति के हर निशान को मिटाने की ठान ली हो।

लेकिन यूपी की राजनीति में जाति की जड़ें इतनी गहरी हैं कि इन्हें उखाड़ना आसान नहीं। 2007 में मायावती ने ब्राह्मण-दलित गठजोड़ से बसपा को सत्ता तक पहुंचाया था। तब पूरे प्रदेश में ‘ब्राह्मण सम्मेलन’ हुए, लेकिन कागजों पर इन्हें ‘प्रबुद्ध वर्ग सम्मेलन’ कहा गया। ब्राह्मण शब्द का जिक्र नहीं, लेकिन सतीश चंद्रा मिश्रा ब्राह्मण मेहमानों की ही अगवानी कर रहे थे। 2022 में भी यही कोशिश दोहराई गई, पर बसपा को सिर्फ एक विधायक मिला बलिया की रसड़ा सीट से उमाशंकर सिंह, जो अपने दम पर जीते। अब इस नए आदेश के बाद मायावती का ‘दलित की बेटी’ कहना भी मुश्किल हो जाएगा। नगीना से सांसद चंद्रशेखर आजाद, जो ‘द ग्रेट चमार’ की टैगलाइन से चर्चा में आए, अब वह नारा नहीं दोहरा पाएंगे। जातिगत गौरव के संकेतों पर ही रोक है। बसपा, जो दलित वोटों की रीढ़ पर टिकी है, अब क्या रणनीति अपनाएगी? क्या वे ‘सामाजिक समरसता सभा’ जैसे नामों से काम चलाएंगी अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के लिए यह आदेश सबसे बड़ा सिरदर्द बन सकता है। सपा की राजनीति मुलायम सिंह के जमाने से यादव और पिछड़े वोटों पर टिकी रही। 2024 के लोकसभा चुनाव में अखिलेश ने पीडीए फॉर्मूला आजमाया पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक। इसमें धर्म का तड़का था, लेकिन आधार जातिगत ही था। अब जाति का नाम लिए बिना वोटरों को कैसे जोड़ा जाएगा? पंचायत चुनावों में तो मुश्किल और गहरी है। गांवों में वोटिंग का गणित हमेशा ‘जिस जाति की संख्या ज्यादा, वही जीतेगा’ पर चलता रहा। जाट बाहुल्य गांव में जाट सरपंच, ब्राह्मण बस्ती में ब्राह्मण। विधानसभा-लोकसभा में जाति जीत की गारंटी न भी दे, लेकिन एकजुट वोट पड़ जाए तो बाजी पलट देती है। अखिलेश ने इस आदेश को ‘कागजी दिखावा’ कहा। बोले, पांच हजार साल पुराने भेदभाव को मिटाने के लिए कागज नहीं, सोच बदलनी होगी। सपा जैसी पार्टियां, जिन्होंने जाति को सियासी हथियार बनाया, अब नई राह तलाशेंगी। क्या वे ‘क्षेत्रीय एकता सभा’ के नाम पर पिछड़ों को बुलाएंगी, या अल्पसंख्यक कार्ड और जोर से खेलेंगी?

भाजपा और योगी आदित्यनाथ पर इस आदेश का असर कम दिखता है। विपक्ष उन पर ‘ठाकुरवाद’ का इल्जाम लगाता रहा, लेकिन योगी की रैलियां ‘हिंदू एकता’ या ‘राम भक्ति’ के नाम पर होती हैं, जाति का जिक्र कम। फिर भी, सहयोगी दल चिंतित हैं। अपना दल जैसे संगठन, जो ओबीसी वोटों पर निर्भर हैं, अब रणनीति पर फिर से विचार करेंगे। केंद्र की जातीय जनगणना की घोषणा ने पिछड़ों को नया जोश दिया है। राहुल गांधी ने इस मुहिम को लंबे समय तक चलाया, लेकिन अब थोड़े नरम पड़े हैं। कभी पिछड़ों से माफी मांगते हैं कि कांग्रेस ने उनके लिए कम किया। लेकिन यूपी में यह आदेश ठीक जनगणना की घोषणा के पहले आया, तो सवाल उठता है क्या यह वोटबैंकों को बांटने की रणनीति है? विश्लेषक कहते हैं कि सोशल इंजीनियरिंग अब मुश्किल होगी, लेकिन सियासत में रास्ते निकल ही आते हैं। मायावती ने 2022 में सम्मेलनों का नाम बदलकर काम चलाया था, वही चाल अब सब आजमा सकते हैं।

सोशल मीडिया पर यह आदेश जैसे तहलका मचा रहा है। एक्स पर पोस्ट्स की बाढ़ है। एक पोस्ट में इसे ‘हिंदुओं को बांटने वाली पार्टियों के लिए दो मिनट का मौन’ कहा गया, तो दूसरे में राष्ट्रव्यापी सुधार की मांग। सर्वे बताते हैं कि भारत में सोशल मीडिया का बड़ा हिस्सा जातिगत नफरत से भरा है। अब आईटी एक्ट और आईपीसी की धारा 153ए के तहत कार्रवाई होगी। एआई से मॉनिटरिंग बढ़ेगी। लेकिन सवाल है क्या सख्ती सब पर बराबर होगी? गुर्जर नेता राजकुमार भाटी ने इसे अपनी रैली पर हमला बताया। बोले, भाजपा ने खुद जातिगत सभाएं कीं, अब जब गुर्जर जागरूक हो रहे हैं तो रोक। डॉ. उदित राज ने तंज कसा कि 27 में 15 ठाकुर भर्तियां राष्ट्रीय हित में हैं, लेकिन दलित-पिछड़ों की हिस्सेदारी पर जातिवाद का ठप्पा लगता है। सोशल मीडिया अब नया जंग का मैदान है। जागरूकता अभियान और शिक्षा में जातिविहीनता सिखानी होगी।

इस सबके बीच डॉ. भीमराव अंबेडकर की याद आती है। उन्होंने ‘एनिहिलेशन ऑफ कास्ट’ में जातियों के खात्मे की वकालत की थी। संविधान निर्माता अंबेडकर ने जाति को शोषण का हथियार माना। 1932 के पूना पैक्ट से दलितों को आरक्षण दिलाया, लेकिन सपना था जातिविहीन समाज का। हिंदू कोड बिल से महिलाओं-दलितों को समान अधिकार देने की कोशिश की। 1956 में बौद्ध धर्म अपनाकर जाति का खंडन किया। उनका मानना था कि शिक्षा और कानून से भेदभाव मिटेगा। जयप्रकाश नारायण ने भी 1974 की संपूर्ण क्रांति में जाति को लोकतंत्र का दुश्मन कहा। बिहार आंदोलन में सभी जातियों के युवाओं को जोड़ा। बोले, ‘जाति का जहर समाज को खोखला कर रहा है।’ तब कई युवाओं ने सरनेम हटाए कुमार, प्रसाद, भारती जैसे नाम चले। लेकिन जेपी के आंदोलन से ही कुछ नेता जाति पकड़कर चमके। योगी सरकार का यह कदम अंबेडकर-जेपी के विचारों को जिंदा करता है, लेकिन असली बदलाव समाज के मन से आएगा।

यूपी की सियासत में जाति हमेशा केंद्रीय रही। मंडल कमीशन के बाद 1990 के दशक से वोटबैंक मजबूत हुए। बसपा, सपा ने जातिगत रैलियां कीं, जो कई बार हिंसा की वजह बनीं। गांवों में जातिगत बोर्ड, शहरों में होर्डिंग्स पर प्रतिनिधित्व की गिनती। अब यह रोक सियासत को जाति से मुक्त करने का मौका दे सकती है। लेकिन जिन दलों की सियासत ही जाति पर टिकी है, वे क्यों बदलेंगी? सफलता सख्ती पर टिकी है। सोशल मीडिया पर निगरानी, नफरत फैलाने वालों पर कार्रवाई। अगर ढील दी गई, तो कोशिश बेकार। यूपी से शुरू यह बदलाव देशभर में फैले। सरकारी आदेश तो शुरुआत है, असली क्रांति समाज के चिंतन से होगी। क्या यूपी नया इतिहास लिखेगा? वक्त बताएगा, लेकिन उम्मीद की किरण तो दिख रही है। 

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