कांग्रेस से बीजेपी तक… लोकतंत्र पर वंशवाद की पकड़, जनता हाशिये पर

नई दिल्ली। भारतीय राजनीति का चेहरा भले ही चमकता हो, लेकिन इसके पीछे छिपी सच्चाई कड़वी है। हाल ही में कांग्रेस की राष्ट्रीय प्रवक्ता सुप्रिया श्रीनेत ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर एक वीडियो पोस्ट किया, जिसमें ‘देयर किड्स वर्सेज योर किड्स’ का नारा देकर बीजेपी नेताओं के बच्चों को मिलने वाली विशेष सुविधाओं पर सवाल उठाया गया। वीडियो में दिखाया गया कि एक तरफ सत्ताधारी नेताओं के बच्चे विदेशी दौरों, लग्जरी गाड़ियों और सुरक्षित भविष्य का लुत्फ उठा रहे हैं, तो दूसरी तरफ देश के आम नागरिकों के बच्चे बेरोजगारी, प्रदर्शन और पुलिस की लाठियों का सामना कर रहे हैं। लेकिन इस पोस्ट की विडंबना देखिए- सुप्रिया खुद एक बड़े राजनीतिक परिवार से आती हैं। उनके पिता हर्षवर्धन पूर्वी उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद से कई बार कांग्रेस के सांसद रहे। सुप्रिया भले दावा करें कि वे पत्रकारिता से राजनीति में आईं, लेकिन क्या हर पत्रकार को कांग्रेस जैसी बड़ी पार्टी में इतना ऊंचा ओहदा मिल जाता है? जवाब साफ है- नहीं। क्योंकि हर कोई सुप्रिया की तरह सांसद का बेटा या बेटी नहीं होता। यह छोटा-सा उदाहरण उस बड़े सियासी भाई-भतीजावाद की झलक देता है, जो भारतीय लोकतंत्र को वंश-राजतंत्र में बदल रहा है।
भारतीय राजनीति में वंशवाद कोई नई बात नहीं। इसका इतिहास आजादी के साथ शुरू होता है, और इसका सबसे बड़ा चेहरा है नेहरू-गांधी परिवार। मोतीलाल नेहरू, स्वतंत्रता संग्राम के बड़े नेता और कांग्रेस के पहले अध्यक्ष, ने अपने बेटे जवाहरलाल नेहरू को सियासत की बागडोर सौंपी। जवाहरलाल 1947 से 1964 तक देश के पहले प्रधानमंत्री रहे। उन्होंने न सिर्फ देश को दिशा दी, बल्कि अपने परिवार को भी सियासी ऊंचाइयों पर पहुंचाया। उनकी बेटी इंदिरा गांधी 1966-77 और 1980-84 तक प्रधानमंत्री रहीं। इंदिरा के दौर में उनके बेटे संजय गांधी को अनौपचारिक ताकत मिली, जिसका इमरजेंसी के दौरान जमकर दुरुपयोग हुआ। संजय के बाद उनके भाई राजीव गांधी 1984-89 तक पीएम बने। राजीव की पत्नी सोनिया गांधी 1998 से कांग्रेस की कमान संभालती रहीं और यूपीए सरकार की चेयरपर्सन रहीं। अब उनके बेटे राहुल गांधी लोकसभा में विपक्ष के नेता हैं, रायबरेली और वायनाड से सांसद हैं, जबकि उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा 2024 के उपचुनाव में वायनाड से सांसद चुनी गईं। सोनिया गांधी राज्यसभा में हैं। यानी पूरा गांधी परिवार संसद में काबिज है। चर्चा है कि प्रियंका के बेटे रैहान वाड्रा की सियासी एंट्री भी जल्द होगी।
लेकिन नेहरू-गांधी परिवार का प्रभाव सिर्फ कोर फैमिली तक नहीं रुका। जवाहरलाल नेहरू ने अपने रिश्तेदारों को भी बड़े-बड़े पद दिए। उनकी बड़ी बहन विजय लक्ष्मी पंडित भारत की पहली महिला राजदूत (सोवियत संघ 1947-49, अमेरिका 1949-51) और संयुक्त राष्ट्र महासभा की पहली महिला अध्यक्ष (1953) बनीं। नेहरू ने उन्हें कई उच्चायोग और राजदूत पदों पर नियुक्त किया। उनके चचेरे भाई बी.के. नेहरू अमेरिका के राजदूत, यूके के हाईकमिश्नर और गुजरात, कर्नाटक, तमिलनाडु, महाराष्ट्र के राज्यपाल रहे। मोतीलाल के भाई नानक चंद के वंशज अरुण नेहरू 1980-89 तक सांसद रहे, ऊर्जा और गृह राज्य मंत्री बने, और राजीव गांधी के करीबी सलाहकार रहे। रतन कुमार नेहरू विदेश सचिव, चीन और मिस्र के राजदूत बने। विजय लक्ष्मी की बेटी चंद्रलेखा पंडित के पति को मेक्सिको में राजदूत बनाया गया। ये सारी नियुक्तियां परिवारिक वफादारी पर टिकी थीं, जो भाई-भतीजावाद की नींव बनीं।
कांग्रेस पर वंशवाद का ठप्पा तो शुरू से लगा, लेकिन बीजेपी भी इससे अछूती नहीं। पार्टी ने शुरू में खुद को गैर-परिवारवादी बताया, मगर सत्ता में आने के बाद उसने भी कई सियासी परिवारों को गले लगाया। 1999 से 2019 तक लोकसभा में बीजेपी के 31 वंशवादी सांसद चुने गए, जबकि कांग्रेस के 36। 2014 की जीत के बाद भी बीजेपी के 15 फीसदी सांसद परिवारिक पृष्ठभूमि से थे। मध्य प्रदेश में ज्योतिरादित्य सिंधिया के बेटे महानआर्यमन को 2025 में मध्य प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन का अध्यक्ष बनाया गया, जिसे कांग्रेस ने भाई-भतीजावाद का तमगा दिया। बीजेपी ने इसे ‘मेरिट’ बताया, लेकिन सवाल वही- क्या बिना सियासी पृष्ठभूमि के किसी को इतना बड़ा पद मिल सकता है?
यूपी में सपा-बीजेपी दोनों में नई पीढ़ी की एंट्री हो रही है। 2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में तो यह ‘पॉलिटिकल लॉन्चिंग लीग’ बन गया। आरजेडी में लालू यादव के बेटे तेजस्वी और तेजप्रताप, सपा में शिवपाल यादव के बेटे आदित्य, और बीजेपी में कई विधायकों के रिश्तेदारों को टिकट मिले। केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने सितंबर 2024 में परिवारवाद पर तंज कसते हुए कहा, ‘लोगों ने ठान लिया तो एक मिनट में सब सीधे हो जाएंगे।’ मगर हकीकत यह है कि बीजेपी का वंशवाद फैला हुआ है- यह एक परिवार तक सीमित नहीं, बल्कि दूसरे-तीसरे स्तर के नेताओं में ज्यादा दिखता है।वंशवाद सिर्फ कांग्रेस-बीजेपी तक सीमित नहीं। क्षेत्रीय दलों में तो यह और गहरा है। सपा में मुलायम सिंह यादव के बाद अखिलेश, शिवपाल और उनके बच्चे सियासत में हैं। आरजेडी में लालू यादव के बाद तेजस्वी, तेजप्रताप और मीसा भारती। डीएमके में करुणानिधि के बाद स्टालिन और उनके बेटे उदयनिधि। शिवसेना में उद्धव ठाकरे के बाद उनके बेटे आदित्य। ये दल पूरी तरह आनुवंशिक उत्तराधिकार पर चल रहे हैं। बिहार में 2025 के चुनाव में तो यह साफ दिखा, जब हर बड़ा दल अपने ‘वारिसों’ को लॉन्च करने में जुटा है।
वंशवाद का यह खेल लोकतंत्र को खोखला कर रहा है। जब सत्ता कुछ परिवारों तक सिमट जाए, तो आम आदमी के लिए अवसर कहां बचते हैं? सुप्रिया श्रीनेत की पोस्ट एक आईना है, जो उनकी अपनी पार्टी को भी दिखा सकती है। आंकड़े बताते हैं कि 2014-19 के बीच लोकसभा में 25 फीसदी सांसद वंशवादी थे। यह सिर्फ सियासत ही नहीं, बल्कि समाज के हर क्षेत्र में फैल रहा है। युवा बेरोजगारी से जूझ रहे हैं, सड़कों पर उतर रहे हैं, मगर सियासी परिवारों के बच्चे आसानी से संसद और मंत्रालयों तक पहुंच रहे हैं।वंशवाद को खत्म करना आसान नहीं। यह सियासत की जड़ों में बसा है। लेकिन वोटरों की जागरूकता इसे कम कर सकती है। अगर जनता योग्यता को प्राथमिकता दे और परिवार के नाम पर वोट न दे, तो शायद यह चक्र टूटे। सुप्रिया श्रीनेत की पोस्ट ने बहस तो छेड़ी, लेकिन सवाल वही है- क्या सियासी परिवार खुद को इस आईने में देखेंगे? या फिर यह सिर्फ एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने का खेल बनकर रह जाएगा? जवाब जनता के पास है, जो अपने वोट से इस सियासी विरासत को चुनौती दे सकती है।