किंगमेकर नहीं, अब किंग बनने निकले पीके, करगहर बना सियासी अखाड़ा

बिहार की सियासी जमीन पर 2025 का विधानसभा चुनाव एक नए युग की शुरुआत करने को तैयार है। एनडीए और महागठबंधन की पारंपरिक जंग के बीच जन सुराज पार्टी के संस्थापक प्रशांत किशोर (पीके) ने तीसरे मोर्चे की नींव रखकर सियासी हलचल मचा दी है। ‘बिहार तक कॉन्क्लेव’ में पीके ने अपनी चुनावी महत्वाकांक्षा का खुलासा कर बिहार की सियासत में तूफान ला दिया। उन्होंने ऐलान किया कि अगर उनकी पार्टी जन सुराज तय करती है, तो वे चुनावी मैदान में उतरेंगे, और वह भी अपनी जन्मभूमि या कर्मभूमि से। ताजा खबरों के मुताबिक, पीके ने अपनी जन्मभूमि रोहतास जिले की करगहर सीट को चुना है। यह फैसला न केवल उनके सियासी करियर का निर्णायक मोड़ है, बल्कि बिहार की राजनीति में नए समीकरणों को जन्म दे रहा है। करगहर में नीतीश कुमार के करीबी दावेदार और कांग्रेस का मजबूत आधार इस मुकाबले को रोमांचक बना रहा है। क्या पीके की यह रणनीति बिहार की सियासत का रुख मोड़ेगी? आइए, इस सियासी ड्रामे के हर पहलू को खंगालते हैं।
प्रशांत किशोर का सियासी सफर किसी सिनेमाई कहानी से कम नहीं। कभी संयुक्त राष्ट्र में काम करने वाले इस रणनीतिकार ने 2014 में नरेंद्र मोदी की ऐतिहासिक जीत, 2015 में नीतीश-लालू के महागठबंधन की कामयाबी, और पंजाब, बंगाल जैसे राज्यों में अपनी रणनीति से सत्ता के समीकरण बदले। लेकिन अब वे किंगमेकर की भूमिका से निकलकर खुद किंग बनने की राह पर हैं। जन सुराज को एक अभियान से पूर्णकालिक पार्टी में तब्दील कर उन्होंने बिहार के लिए बदलाव का सपना दिखाया है। उनकी रणनीति का मूल मंत्र है शिक्षा, स्वास्थ्य और रोजगार। यह नारा बिहार के युवाओं और ग्रामीण जनता की नब्ज को छूता है। कराकाट में उनकी हालिया रैली में उमड़ी भीड़ इसका गवाह है, जहां उन्होंने बिहार को भ्रष्टाचार और बेरोजगारी से मुक्त करने का वादा किया। पीके ने कहा कि अगर बिहार का युवा बिना डर के घूम सके, तो वे भी बिना सिक्योरिटी के रहेंगे। यह बयान उनकी सादगी और जनता से सीधे संवाद की कोशिश को रेखांकित करता है। लेकिन सवाल यह है कि क्या यह जोश वोटों में तब्दील होगा?
करगहर सीट रोहतास जिले में है और जातीय समीकरणों का जटिल ताना-बाना लिए हुए है। यह ब्राह्मण, राजपूत और ओबीसी बहुल सीट है, जहां कुर्मी, कोइरी और दलित वोटर हार-जीत तय करते हैं। 2020 के चुनाव में कांग्रेस के संतोष मिश्रा ने जीत हासिल की थी, जबकि जेडीयू के वशिष्ठ सिंह दूसरे स्थान पर रहे। अब खबर है कि जेडीयू से नीतीश के करीबी दिनेश राय मैदान में उतर सकते हैं। पीके खुद ब्राह्मण समाज से हैं, और इस सीट पर ब्राह्मण वोटरों का प्रभाव निर्णायक है। लेकिन संतोष मिश्रा भी ब्राह्मण हैं, जिससे वोटों का ध्रुवीकरण एक चुनौती होगी। बीएसपी का इस सीट पर असर रहा है, जो पिछले कुछ चुनावों में समीकरण बिगाड़ती रही है। पीके के लिए सबसे बड़ा फायदा उनका स्थानीय होना है। जन सुराज की रैलियां करगहर में जोर पकड़ रही हैं, और उनकी सभाओं में युवाओं की भारी भागीदारी दिख रही है। अगर वे ब्राह्मण वोटों के साथ दलित और अतिपिछड़े वर्ग को साध लें, तो समीकरण उनके पक्ष में झुक सकते हैं। लेकिन कांग्रेस दलित, यादव और ईबीसी वोटों पर नजर गड़ाए है, जबकि जेडीयू कुर्मी और अपर क्लास को लुभाने में जुटा है। यह मुकाबला त्रिकोणीय होने की पूरी संभावना रखता है।
पीके ने वैशाली की राघोपुर सीट को अपनी कर्मभूमि बताते हुए तेजस्वी यादव को चुनौती देने की बात कही थी। राघोपुर लालू परिवार का अभेद्य किला है। तेजस्वी 2015 और 2020 में यहां से भारी अंतर से जीते। उससे पहले लालू और राबड़ी देवी भी इस सीट से विधायक रह चुके हैं। 2020 में तेजस्वी ने 38 हजार वोटों से जीत दर्ज की थी। यह सीट यादव-मुस्लिम बहुल है, और ओबीसी व राजपूत वोट भी अहम हैं। पीके ने कहा था कि अगर चुनाव लड़ना पड़ा, तो तेजस्वी के खिलाफ उतरेंगे, क्योंकि दूसरी जगह से लड़ने का कोई मतलब नहीं। लेकिन अब उनका करगहर पर फोकस साफ है। राघोपुर में तेजस्वी को टक्कर देना उनके लिए जोखिम भरा होता, क्योंकि लालू परिवार का इस सीट पर दशकों का वर्चस्व है। फिर भी, अगर वे वहां उतरते, तो यह मुकाबला सियासी सुर्खियों का केंद्र बनता। पीके की रणनीति और तेजस्वी की लोकप्रियता का टकराव बिहार की सियासत को नया रंग देता।
2025 के बिहार विधानसभा चुनाव में जन सुराज की भूमिका पर सबकी निगाहें टिकी हैं। हाल के ओपिनियन पोल्स में भाजपा को बढ़त दिख रही है, लेकिन जन सुराज को भी कुछ सीटें मिलने की संभावना जताई जा रही है। टाइम्स नाउ-जेवीसी पोल के मुताबिक, भाजपा बड़ी जीत दर्ज कर सकती है, लेकिन जन सुराज का प्रभाव भी नजर आएगा। पीके ने दावा किया है कि एनडीए सत्ता में नहीं आएगी, और अगर जेडीयू 25 से ज्यादा सीटें जीतती है, तो वे राजनीति छोड़ देंगे। यह दावा उनकी आत्मविश्वास भरी रणनीति को दिखाता है। जन सुराज ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ने का ऐलान किया है, और उनका चुनाव चिन्ह ‘स्कूल बैग’ शिक्षा पर उनके फोकस को रेखांकित करता है। पार्टी ने उम्मीदवारों का चयन जनता की राय से करने का अनोखा प्रयोग शुरू किया है, जो उनकी जमीनी रणनीति को मजबूत करता है।
पीके की रणनीति में भ्रष्टाचार पर तीखा हमला और सामाजिक मुद्दों पर जोर अहम है। उन्होंने बिहार भाजपा नेताओं पर वित्तीय अनियमितताओं का आरोप लगाया। नीतीश कुमार को ‘बैक-डोर पॉलिटिक्स’ करने वाला बताते हुए उन्होंने कहा कि अगर नीतीश चुनाव लड़ते, तो उनके खिलाफ उतरते। नीतीश 20 साल से चुनाव नहीं लड़े, और यह बयान उनकी सियासी रणनीति पर करारा प्रहार है। जन सुराज ने बुजुर्गों को 2000 रुपये पेंशन देने का वादा किया है, जो गाया में उनके भाषण में सामने आया। यह वादा ग्रामीण इलाकों में खासा प्रभाव डाल सकता है, जहां बुजुर्ग मतदाता निर्णायक हैं।
बिहार की सियासत में जाति का समीकरण हमेशा हावी रहा है। जन सुराज जातिवाद तोड़ने की बात करती है, लेकिन वोटों का ध्रुवीकरण ही हार-जीत तय करेगा। करगहर में ब्राह्मण वोट पीके के पक्ष में जा सकते हैं, लेकिन कांग्रेस और जेडीयू की चुनौती कम नहीं। राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा की मजबूती एनडीए को फायदा देगी, लेकिन महागठबंधन में आरजेडी की ताकत भी कम नहीं है। हाल की घटनाओं, जैसे दरभंगा में कांग्रेस और राजद की वोटर अधिकार यात्रा के दौरान पीएम मोदी और उनकी मां के खिलाफ अभद्र टिप्पणी, ने सियासी माहौल को और गरमा दिया है। पीके की एंट्री से वोटों का बंटवारा होगा, जो किसी एक गठबंधन को नुकसान पहुंचा सकता है। कुछ लोग जन सुराज को भाजपा की ‘बी टीम’ बता रहे हैं, लेकिन पीके ने इसे खारिज किया।
आने वाले महीनों में रैलियां और तेज होंगी। पीके की कराकाट रैली में भारी भीड़ उनकी बढ़ती लोकप्रियता का सबूत है। चुनाव नवंबर में होने की संभावना है, और चुनाव आयोग की निगरानी में प्रक्रिया होगी। पीके की जीत या हार बिहार की सियासत का भविष्य तय करेगी। क्या वे किंगमेकर से किंग बन पाएंगे? यह समय बताएगा। लेकिन उनकी एंट्री ने बिहार के चुनावी रण को रोमांचक बना दिया है। युवा वोटरों में उनकी अपील बढ़ रही है, और अगर वे जाति की दीवार तोड़ पाए, तो बड़ा उलटफेर संभव है। करगहर से उनकी शुरुआत बिहार की सियासत में नया अध्याय लिख सकती है। जनता बदलाव की बाट जोह रही है, और पीके उसकी आवाज बनने की राह पर हैं।