रूसी तेल पर ट्रंप का टैरिफ वार, भारत का करारा जवाब जयशंकर बोले दबाव में नहीं झुकेंगे

भारत और अमेरिका के बीच चल रही तनातनी एक बार फिर उस मोड़ पर पहुंच गई है, जहां कूटनीति और राष्ट्रीय हित की असली परीक्षा होती है। अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भारतीय उत्पादों पर 50 फीसदी टैरिफ लगाने का ऐलान कर दिया है, जिसमें से 25 फीसदी का अतिरिक्त शुल्क केवल इस वजह से जोड़ा गया कि भारत रूस से बड़ी मात्रा में कच्चा तेल खरीद रहा है। लेकिन भारत ने भी जिस अंदाज में इसका जवाब दिया है, उसने पूरी दुनिया का ध्यान खींच लिया है। विदेश मंत्री डॉ. एस. जयशंकर ने साफ और दो टूक शब्दों में कहा कि भारत की ऊर्जा नीति किसी और के दबाव से नहीं, बल्कि अपने राष्ट्रीय हित और आर्थिक जरूरतों को ध्यान में रखकर तय होती है। उन्होंने अमेरिका और यूरोप को तीखे लहजे में जवाब देते हुए कहा कि यदि भारत से रिफाइंड ऑयल खरीदने में किसी को समस्या है, तो वह न खरीदे, कोई मजबूरी नहीं है।

जयशंकर का यह बयान ऐसे समय में आया है, जब अमेरिका का पूरा दबाव भारत पर केंद्रित है। रूस-यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद भारत ने रूस से तेल आयात बढ़ाकर अपनी ऊर्जा जरूरतों को सुरक्षित करने की रणनीति अपनाई थी। पहले भारत की रूसी तेल खरीद नगण्य थी कुल आयात का 1% से भी कम, लेकिन अब यह 42% तक पहुंच चुकी है। अमेरिकी ट्रेजरी सेक्रेटरी स्कॉट बेसेंट का कहना है कि भारत ने इस सस्ते तेल को खरीदकर दोबारा बेचकर 16 अरब डॉलर का अतिरिक्त मुनाफा कमाया है, जिसे अमेरिका ‘मुनाफाखोरी’ कह रहा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि जब चीन भी रूस से तेल खरीद रहा है और उसकी हिस्सेदारी भी 13% से बढ़कर 16% हो गई है, तो केवल भारत को क्यों निशाना बनाया जा रहा है?

जयशंकर ने मंच से यह भी याद दिलाया कि अमेरिका के अधिकारियों ने ही कुछ साल पहले भारत से कहा था कि दुनिया के ऊर्जा बाजार को स्थिर करने के लिए रूस से तेल खरीदना जरूरी है। अब वही अमेरिका उल्टा भारत पर आरोप लगा रहा है कि उसकी खरीद से रूस को फायदा हो रहा है। जयशंकर ने इसे “हास्यास्पद और विरोधाभासी रवैया” बताया। उन्होंने कहा, “यह मजाक है कि एक प्रो-बिजनेस अमेरिकी प्रशासन दूसरों पर बिजनेस करने का आरोप लगाए। यूरोप भी रूस से तेल खरीद रहा है, अमेरिका भी खरीद रहा है। फिर अगर भारत वही कर रहा है, तो समस्या कहां से खड़ी हो गई?”

डोनाल्ड ट्रंप के ‘टैरिफ वॉर’ की कहानी भी किसी से छिपी नहीं है। ट्रंप ने हमेशा टैरिफ को हथियार की तरह इस्तेमाल किया है, चाहे वह चीन हो, यूरोप हो या अब भारत। अमेरिकी सलाहकार पीटर नवारो भारत को ‘टैरिफ का महाराजा’ कह चुके हैं और यहां तक आरोप लगा चुके हैं कि भारत रूस के लिए लॉन्ड्रोमैट का काम कर रहा है। उनका तर्क है कि भारत सस्ते तेल को रिफाइन करके दूसरे देशों को बेच रहा है, जिससे रूस की अर्थव्यवस्था को सहारा मिल रहा है। लेकिन भारतीय पक्ष का कहना है कि यह पूरी तरह से भारत की ऊर्जा सुरक्षा और उपभोक्ताओं के हित का मामला है।

यहां ध्यान देने वाली बात यह भी है कि 2024-25 में अप्रैल से अगस्त तक अमेरिका भारत का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार रहा है। दोनों देशों के बीच 53 अरब डॉलर का व्यापार हुआ। ऐसे में सवाल उठना लाजमी है कि क्या अमेरिका अपने ही सबसे बड़े साझेदार को दंडित कर रहा है? प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने स्पष्ट कर दिया है कि भारत किसानों और छोटे उत्पादकों के हितों पर कोई समझौता नहीं करेगा। यही वजह है कि जयशंकर ने कहा, “हमारी रेड लाइन्स तय हैं। किसान और छोटे उत्पादक हमारे लिए सर्वोपरि हैं। इन पर कोई समझौता संभव नहीं है।”

ट्रंप प्रशासन ने हालांकि एक तरफ अंतरिम व्यापार समझौते की बात कही है, वहीं दूसरी तरफ इतना भारी टैरिफ थोपकर रिश्तों में कड़वाहट भी घोल दी है। दिलचस्प यह है कि अमेरिकी राष्ट्रपति ने हाल ही में सर्जियो गोर को भारत में नया राजदूत नियुक्त किया है, जिन्हें उनका बेहद करीबी माना जाता है। इससे यह संकेत भी मिलता है कि वाशिंगटन बातचीत के दरवाजे पूरी तरह बंद नहीं करना चाहता। जयशंकर ने भी हल्के फुल्के अंदाज में कहा, “कट्टी नहीं हुई है, बातचीत चल रही है।”

लेकिन असली सवाल यह है कि जब चीन रूस का सबसे बड़ा तेल खरीदार है और यूरोपीय संघ सबसे बड़ा एलएनजी आयातक है, तो भारत को ही क्यों ‘सेकेंडरी टैरिफ’ का निशाना बनाया जा रहा है? विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका के निशाने पर भारत इसलिए भी है क्योंकि भारत की आर्थिक और कूटनीतिक ताकत लगातार बढ़ रही है। रूस से तेल खरीद ने भारत को ऊर्जा सुरक्षा दी है, जबकि चीन के साथ व्यापार 118 अरब डॉलर तक पहुंच चुका है। भारत BRICS जैसे मंचों पर सक्रिय है और शंघाई सहयोग संगठन में भी प्रभावशाली भूमिका निभा रहा है। यह सब अमेरिका के लिए चिंता का विषय है कि कहीं भारत, रूस और चीन का त्रिकोणीय समीकरण वैश्विक शक्ति संतुलन को बदल न दे।

रूस के साथ भारत की बढ़ती नजदीकी सिर्फ तेल तक सीमित नहीं है। मॉस्को में हाल ही में हुई बैठक में दोनों देशों ने फार्मा, कृषि और वस्त्र क्षेत्र में सहयोग बढ़ाने पर सहमति जताई। यह संदेश स्पष्ट है कि भारत केवल एकतरफा दबाव की राजनीति में विश्वास नहीं करता। उसकी विदेश नीति गुटनिरपेक्षता और रणनीतिक स्वायत्तता पर आधारित है।जहां तक अमेरिकी आरोपों की बात है, भारत ने बार-बार यह कहा है कि उसकी रूसी तेल खरीद वैश्विक ऊर्जा बाजार को स्थिर करने में मदद करती है। अमेरिका खुद भी भारत को तेल बेच रहा है और पिछले कुछ वर्षों में भारतीय आयात में अमेरिकी तेल की हिस्सेदारी भी बढ़ी है। ऐसे में यह आरोप कि भारत सिर्फ रूस पर निर्भर है, सही नहीं ठहरते।

पीटर नवारो और स्कॉट बेसेंट जैसे अधिकारियों की बयानबाजी के बावजूद अमेरिका में यह भी मान्यता है कि भारत रूस-यूक्रेन युद्ध में शांति स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। नवारो ने खुद कहा कि रूस और यूक्रेन के बीच शांति का रास्ता भारत से होकर गुजरता है। यह मान्यता बताती है कि भारत की कूटनीतिक स्थिति कितनी मजबूत है।इस बीच चीन के विदेश मंत्री वांग यी भी नई दिल्ली पहुंचे और जयशंकर से मुलाकात की। दोनों देशों ने इस बात पर जोर दिया कि बाहरी दबाव और धमकियों के बीच भारत और चीन को सहयोग बढ़ाना चाहिए। यह मुलाकात ऐसे समय हुई है, जब टैरिफ की समयसीमा नजदीक आ रही है और अमेरिका-भारत रिश्ते तनावपूर्ण हो रहे हैं।प्रधानमंत्री मोदी ने हाल ही में स्पष्ट किया था कि भारत ‘भारी कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है।’ उन्होंने स्वतंत्रता दिवस के भाषण में यह कहा था कि भारत राष्ट्रीय हितों से समझौता नहीं करेगा। यही वजह है कि कपास पर अस्थायी तौर पर शुल्क हटाने जैसे संकेत देने के बावजूद सरकार ने किसानों के हितों की रक्षा की गारंटी दी है।

भारत-अमेरिका संबंध हमेशा से जटिल लेकिन रणनीतिक साझेदारी का हिस्सा रहे हैं। रक्षा, तकनीक और व्यापार में सहयोग के बावजूद, जब बात राष्ट्रीय हित की आती है, तो भारत ने कभी झुकने की नीति नहीं अपनाई। जयशंकर का यह बयान कि “अगर आपको भारत से तेल या रिफाइंड उत्पाद खरीदने में समस्या है, तो मत खरीदिए” केवल शब्दों का जवाब नहीं था, बल्कि यह भारत की बदलती ताकत और आत्मविश्वास का ऐलान भी था। यह संदेश न केवल अमेरिका और यूरोप को, बल्कि पूरी दुनिया को यह याद दिलाता है कि भारत आज किसी दबाव में आने वाला देश नहीं है, बल्कि वह अपने निर्णय खुद लेने में सक्षम है।इस पूरे विवाद से एक बात और साफ हो गई है कि 21वीं सदी का भारत अब केवल वैश्विक राजनीति में एक दर्शक नहीं, बल्कि निर्णायक भूमिका निभाने वाला खिलाड़ी बन चुका है। चाहे वह रूस से तेल खरीद का मामला हो, चीन के साथ रिश्ते हों या अमेरिका के साथ जटिल व्यापारिक वार्ताएं भारत अब आत्मविश्वास के साथ हर मुद्दे पर अपनी शर्तें रख रहा है। यही वह नया भारत है, जिसकी आवाज आज वैश्विक मंच पर पहले से कहीं ज्यादा बुलंद और असरदार है।

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