जनगणना 2027 की तैयारी, लेकिन NPR पर चुप्पी क्या मोदी सरकार आंदोलनों से घबराई है?

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार
2027 की जनगणना को लेकर केंद्र सरकार की सक्रियता साफ़ दिखाई दे रही है, लेकिन उतनी ही स्पष्ट है उसकी रणनीतिक चुप्पी और यह चुप्पी NPR को लेकर है। अब जब देश जातिगत जनगणना की तरफ़ कदम बढ़ा चुका है और केंद्र सरकार ने इसे मुख्य जनगणना में शामिल करने का एलान भी कर दिया है, तब यह सवाल मौजूं है कि NPR का मुद्दा आखिर क्यों ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है? क्या यह सरकार की दूरदर्शिता है या फिर 2019 के बाद उपजे जनविरोध की परछाइयों से बचने की कवायद?यह बात किसी से छिपी नहीं है कि 2019 में जब नागरिकता संशोधन कानून (CAA) को संसद से पारित किया गया, तब देश के कई हिस्सों में व्यापक विरोध-प्रदर्शन हुए। शाहीन बाग़ इस आंदोलन का प्रतीक बन गया, तो कोलकाता, पटना, लखनऊ, हैदराबाद और दिल्ली में भी सड़कों पर हजारों लोग उतर आए। उस समय आंदोलनकारियों और विपक्षी दलों ने एक नैरेटिव गढ़ा कि CAA के बाद NPR और NRC को लागू कर, केंद्र सरकार मुस्लिम नागरिकों को निशाना बनाएगी। भले ही केंद्र ने तब NRC को ‘कल्पना’ बताया और NPR को सामान्य प्रक्रिया, लेकिन जनता की भावना कहीं और बह रही थी। सरकार को पीछे हटना पड़ा। NPR अपडेट करने का प्रस्ताव वहीं अटक गया और जनगणना 2021, जो कि महामारी की वजह से टल गई थी, अब 2027 में आयोजित होने जा रही है। लेकिन इस बार भी सरकार NPR के मसले पर मौन है।
सरकार की यह रणनीति पहली नज़र में राजनीतिक रूप से चतुराई भरी लग सकती है। 2026 और 2027 में जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, उनमें पश्चिम बंगाल, केरल, तमिलनाडु और दिल्ली जैसे राज्य शामिल हैं, जहां NPR और NRC के खिलाफ पहले ही उग्र आंदोलन हो चुके हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी पहले ही चेतावनी दे चुकी हैं कि अगर फिर कोई ऐसी कोशिश की गई, तो वह फिर सड़क पर उतरेंगी। ऐसे में भाजपा के लिए यह समय विपक्ष को अतिरिक्त मुद्दा देने का नहीं है। खासतौर पर तब जब वह बंगाल, केरल और तमिलनाडु जैसे राज्यों में अपनी राजनीतिक जड़ें मज़बूत करने की कोशिश में जुटी है।लेकिन सवाल उठता है कि क्या एक सशक्त और निर्णायक सरकार से यह उम्मीद की जाती है कि वह दबाव के आगे झुकती नज़र आए? क्या NPR जैसा कदम, जिसे पिछली सरकार ने शुरू किया था और जिसे भाजपा ने ही 2015 में अपडेट किया था, अब सरकार की प्राथमिकता से बाहर हो गया है? या यह मान लिया जाए कि अब केंद्र सरकार अपने ‘राजनैतिक पूंजी’ को महज़ सुरक्षित चुनावी प्रयोगों में ही लगाएगी?
दूसरी तरफ जातिगत जनगणना को लेकर सरकार की तत्परता बिल्कुल साफ़ दिख रही है। बिहार में 2023 में हुए जातिगत सर्वेक्षण के बाद विपक्षी दलों ने इसे एक चुनावी मुद्दा बना दिया। कांग्रेस, राजद, सपा और जदयू ने जाति आधारित आंकड़ों की मांग ज़ोर-शोर से उठाई। अब मोदी सरकार ने इस मांग को स्वीकार कर, एक तरह से विपक्ष के मुद्दे को ही हथिया लिया है। यह एक ऐसा दांव है जिसमें सामाजिक न्याय की मांगों को पूरा करने की बात भी शामिल है और OBC वोट बैंक को साधने की चतुर रणनीति भी।अगर राजनीतिक नज़रिये से देखें तो भाजपा अब परंपरागत हिन्दू राष्ट्रवाद या मुस्लिम विरोधी विमर्श के बजाय सामाजिक समीकरणों को साधने की ओर बढ़ रही है। महिला आरक्षण कानून इसका स्पष्ट उदाहरण है, जिसमें जनगणना और डीलिमिटेशन की शर्तें जोड़कर इसे 2029 के लोकसभा चुनाव तक टाल दिया गया है। लेकिन इस पूरे परिदृश्य में NPR की चुप्पी यह संकेत देती है कि अब सरकार उन विषयों से दूरी बना रही है जिन पर सड़कों पर उबाल आ चुका है।
यह भी उल्लेखनीय है कि भाजपा के 2024 के लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में NRC या NPR का कोई ज़िक्र नहीं था। जबकि 2019 के घोषणापत्र में NRC को पूरे देश में लागू करने का वादा था। यह अंतर अपने आप में बहुत कुछ कहता है। भाजपा अब शायद यह समझ चुकी है कि हर चुनाव को राष्ट्रवाद और कट्टरता के सहारे नहीं जीता जा सकता। अब उसे सामाजिक न्याय, महिला अधिकार और जनसंख्या आंकड़ों जैसे ‘सॉफ्ट मुद्दों’ की शरण लेनी पड़ रही है।हालांकि यह तर्क भी दिया जा सकता है कि सरकार सिर्फ प्राथमिकताओं को दोबारा व्यवस्थित कर रही है जातिगत आंकड़े जुटाना सामाजिक नीति निर्माण के लिए ज़रूरी है, और NPR को लेकर गलतफहमियों के कारण उसे फिलहाल स्थगित करना समझदारी है। लेकिन यहीं पर लोकतांत्रिक पारदर्शिता और दृढ़ नेतृत्व की कसौटी भी सामने आती है। क्या सरकार को स्पष्ट नहीं करना चाहिए कि NPR को लेकर उसकी स्थिति क्या है? क्या यह सिर्फ चुनावों के चलते रोका गया है या नीति से ही हटाया गया है?
यह असमंजस लोकतंत्र के लिए स्वस्थ संकेत नहीं है। एक ओर जहां आंकड़े इकट्ठा करना राष्ट्र की जननीति के लिए अनिवार्य होता है, वहीं दूसरी ओर आंकड़ों की राजनीति देश को दो राहे पर खड़ा कर सकती है। यदि NPR से भय है, तो जाति आधारित जनगणना से जुड़ी संभावित सामाजिक खींचतान से इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन चूंकि इस बार जातिगत जनगणना को संविधानिक, राजनीतिक और सामाजिक समर्थन मिल रहा है, इसलिए सरकार उसे ही प्राथमिकता दे रही है।केंद्र की यह रणनीति तत्काल लाभ तो दे सकती है, लेकिन इससे शासन के दीर्घकालिक चरित्र पर प्रश्नचिन्ह लग सकता है। अगर सरकार जनता के डर और आंदोलनों से ही नीतियां तय करने लगे, तो इसका मतलब यह होगा कि वह जनमत से अधिक जनविरोध से डरने लगी है। जो सरकार बहुमत के बल पर बड़े निर्णय लेने का दम भरती थी, वही अब बड़े जोखिमों से कन्नी काटती नज़र आ रही है। एक तरफ यह व्यवहारिक सोच का संकेत है, तो दूसरी ओर यह नेतृत्व में साहस की कमी का भी प्रतीक हो सकता है।जनगणना 2027 और जाति आधारित आंकड़े निश्चित रूप से आने वाले वर्षों में भारत की राजनीति और समाज दोनों की दिशा तय करेंगे। लेकिन इसके साथ ही यह भी ज़रूरी है कि सरकार इन आंकड़ों के साथ पारदर्शिता बरते, जनता को भरोसे में ले और यह स्पष्ट करे कि NPR और NRC जैसे मुद्दों पर उसकी दीर्घकालिक सोच क्या है। लोकतंत्र में चुप्पी भी कभी-कभी शोर से बड़ी होती है और अभी सरकार की चुप्पी बहुत कुछ कह रही है।