2027 से पहले मुस्लिम वोटों की होड़ सपा की जमीन खिसकाने में जुटी कांग्रेस और AIMIM

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

उत्तर प्रदेश की सियासत में मुस्लिम वोट बैंक की भूमिका हमेशा से निर्णायक रही है। राज्य में लगभग 20 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है, जो 403 विधानसभा सीटों में से कम से कम 140 सीटों पर निर्णायक प्रभाव रखती है। यही कारण है कि 2027 के विधानसभा चुनाव से पहले सपा, कांग्रेस, AIMIM, भाजपा और बसपा जैसे प्रमुख दलों में मुस्लिम वोटों को लेकर जबर्दस्त रस्साकशी शुरू हो गई है। लेकिन इस बार यह प्रतिस्पर्धा न केवल बाहरी है बल्कि गठबंधन के भीतर भी घमासान मचा रही है, विशेषकर कांग्रेस और सपा के बीच। दोनों दल मुस्लिम वोटों के लिए दावा ठोक रहे हैं, मगर यह दावा अब टकराव में तब्दील होता नजर आ रहा है।

समाजवादी पार्टी लंबे समय से मुस्लिम मतदाताओं का सबसे बड़ा ठिकाना रही है। लेकिन 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा के प्रदर्शन से मुस्लिम समुदाय में असंतोष उभरा। आजम खान, इरफान सोलंकी और नाहिद हसन जैसे मुस्लिम नेताओं के खिलाफ चल रहे मुकदमे और पार्टी नेतृत्व की खामोशी ने मुस्लिम मतदाताओं के एक तबके को यह सोचने पर मजबूर कर दिया कि क्या सपा अब भी उनकी राजनीतिक आवाज़ है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने हाल ही में अल्पसंख्यक मोर्चा की बैठक में जोर देकर कहा कि सपा मुसलमानों के साथ है और उन्हें बीजेपी के बुलडोजर राज से सुरक्षित रखने के लिए प्रतिबद्ध है। इस बैठक में मौलाना इकबाल कादरी जैसे प्रमुख मुस्लिम नेताओं ने भी भाग लिया और वोटर लिस्ट से मुसलमानों के नाम गायब होने पर नाराजगी जताई। अखिलेश ने स्पष्ट किया कि 2027 का चुनाव INDIA गठबंधन के तहत ही लड़ा जाएगा और कांग्रेस के साथ गठबंधन बरकरार रहेगा।

लेकिन कांग्रेस के कुछ नेताओं को सपा की मुस्लिम नीति पर भरोसा नहीं है। खासकर इमरान मसूद ने खुलकर सपा पर हमला बोला है। उनका कहना है कि समाजवादी पार्टी को ऐसे मुसलमान चाहिए जो सिर झुकाकर दरी बिछाएं, न कि नेतृत्व करें। मसूद ने यह भी आरोप लगाया कि सपा ने आजम खान और इरफान सोलंकी जैसे नेताओं को पार्टी से अलग कर दिया और उनके साथ हो रहे अन्याय पर चुप्पी साध ली। उन्होंने कहा कि कांग्रेस को किसी से भीख मांगने की ज़रूरत नहीं है और वह अपने संगठनात्मक बल के आधार पर अकेले चुनाव लड़ सकती है। इमरान मसूद के इन बयानों से कांग्रेस और सपा के रिश्तों में कड़वाहट और गहरी हो गई है।सपा ने भी पलटवार करते हुए इमरान मसूद को बीजेपी का एजेंट करार दिया है। पार्टी प्रवक्ता राजीव राय ने कहा कि मसूद की टिप्पणियाँ गठबंधन को कमजोर करने की कोशिश हैं और इससे सिर्फ बीजेपी को फायदा होगा। ऐसे समय में जब बीजेपी मुस्लिम विरोधी नीतियों के ज़रिए ध्रुवीकरण की राजनीति कर रही है, सपा और कांग्रेस का आपसी टकराव मुस्लिम वोट बैंक को खंडित कर सकता है।

दूसरी तरफ AIMIM प्रमुख असदुद्दीन ओवैसी ने भी यूपी में अपनी जमीन मजबूत करने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। हाल ही में लखनऊ में आयोजित एक बड़े मुस्लिम सम्मेलन में AIMIM ने 2027 के चुनावों के लिए “मिशन-2027” की घोषणा की। ओवैसी ने कहा कि सपा और कांग्रेस दोनों ने मुसलमानों को सिर्फ वोट बैंक समझा है, उनके मुद्दों को उठाने में असफल रहे हैं। AIMIM ने विशेष रूप से मस्जिदों, मदरसों और दरगाहों को निशाना बनाए जाने, मुस्लिम युवाओं पर फर्जी मुकदमे चलाए जाने और पुलिस कार्रवाई की आड़ में मुस्लिम मोहल्लों में दहशत फैलाए जाने जैसे मुद्दों को उठाया। AIMIM अब पंचायत चुनाव से लेकर विधानसभा चुनाव तक पूरे राज्य में सक्रिय भूमिका निभाने की तैयारी कर रही है। पार्टी का लक्ष्य है कि वह मुसलमानों के बीच एक स्वतंत्र और स्पष्ट राजनीतिक विकल्प के रूप में खुद को स्थापित करे।

इस सियासी मैदान में भाजपा भी पीछे नहीं है। बीजेपी ने हाल ही में ‘मोदी के साथ मुसलमान’ अभियान शुरू किया है, जिसका उद्देश्य मुस्लिम समुदाय के भीतर खासकर पसमांदा मुसलमानों तक पहुंच बनाना है। योगी आदित्यनाथ सरकार के तहत मदरसों का सर्वे, तीन तलाक पर कानून, और मुस्लिम महिलाओं के लिए योजनाएं भाजपा की ओर से किए गए ऐसे प्रयास हैं जिन्हें पार्टी ‘सुधारवादी’ मानती है। अब भाजपा मदरसों में योगा शिविर आयोजित कर, मस्जिदों के पास चौपाल लगाकर, और क़ुरआन के साथ कंप्यूटर की पढ़ाई को बढ़ावा देकर मुस्लिमों तक पहुँचने की कोशिश कर रही है। भाजपा अल्पसंख्यक मोर्चा ने 403 विधानसभा सीटों पर मुस्लिम बहुल इलाकों में चौपालें लगाने की योजना बनाई है ताकि प्रधानमंत्री मोदी की योजनाओं को इन समुदायों तक पहुंचाया जा सके।

भाजपा की रणनीति मुख्यतः दो हिस्सों में बंटी हुई है एक तरफ हिंदुत्व का स्पष्ट एजेंडा है और दूसरी तरफ मुस्लिमों के साथ संवाद का प्रयास। खासकर पसमांदा मुस्लिमों के बीच सामाजिक न्याय के मुद्दे को उठाकर भाजपा उन्हें साधना चाहती है। तीन तलाक और शौचालय योजना जैसी योजनाएं मुस्लिम महिलाओं को प्रभावित करने की दिशा में काम कर रही हैं। भाजपा यह संदेश देना चाहती है कि वह सबका साथ, सबका विकास की नीति पर चल रही है, और मुसलमानों को भी इसका लाभ मिल रहा है।बसपा भले ही फिलहाल उतनी सक्रिय नहीं दिख रही हो, लेकिन मायावती की पार्टी मुस्लिम वोटों पर अपनी पारंपरिक पकड़ बनाने की रणनीति पर काम कर रही है। बसपा ने 2022 के विधानसभा चुनाव में 80 से अधिक मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया था, लेकिन पार्टी को सफलता नहीं मिली। अब बसपा नई सोशल इंजीनियरिंग पर काम कर रही है जिसमें दलित-मुस्लिम गठजोड़ को केंद्र में रखा गया है। हालांकि इस रणनीति के नतीजे अभी स्पष्ट नहीं हैं, लेकिन मायावती की चुप्पी यह संकेत देती है कि वे सही समय पर आक्रामक चुनाव प्रचार में उतर सकती हैं।

इन सभी दलों की रणनीतियों के बीच कांग्रेस और सपा के बीच की रंजिश सबसे अधिक सुर्खियों में है। कांग्रेस के मुस्लिम नेताओं का यह आरोप है कि सपा केवल वोट लेने के समय मुसलमानों को याद करती है, बाकी समय उन्हें दरकिनार कर देती है। वहीं सपा का कहना है कि कांग्रेस मुस्लिम वोटों को तोड़ रही है और इसका फायदा सीधे बीजेपी को होगा। यह टकराव 2027 के विधानसभा चुनावों में INDIA गठबंधन की संभावनाओं को कमजोर कर सकता है। अगर सपा और कांग्रेस मिलकर चुनाव नहीं लड़ते या एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी करते रहे, तो मुस्लिम वोटों का विभाजन निश्चित है, जिसका सीधा लाभ भाजपा को मिलेगा।AIMIM और बसपा जैसे दल इस स्थिति का फायदा उठाने की फिराक में हैं। ओवैसी की पार्टी उन मुसलमानों को लुभा रही है जो सपा और कांग्रेस दोनों से नाराज़ हैं। वहीं बसपा मुस्लिम-दलित गठजोड़ को दोहराकर अपने आधार को पुनः स्थापित करना चाहती है। इस तरह मुस्लिम वोट बैंक को लेकर उत्तर प्रदेश में बहुआयामी राजनीति चल रही है जिसमें हर दल अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए नए-नए प्रयोग कर रहा है।

2027 का चुनाव सिर्फ सत्ता परिवर्तन का अवसर नहीं होगा, बल्कि यह तय करेगा कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुसलमानों की राजनीतिक हिस्सेदारी कितनी मजबूत है। क्या मुसलमान एकजुट होकर किसी एक गठबंधन के पक्ष में जाएंगे या विभिन्न दलों में बंटकर अपना प्रभाव कमजोर करेंगे, यह देखने वाली बात होगी। लेकिन फिलहाल जो हालात हैं, वे बता रहे हैं कि मुस्लिम वोट बैंक को लेकर सियासी जंग अब सिर्फ बयानबाजी तक सीमित नहीं है, बल्कि यह जमीनी स्तर पर संगठनों, रणनीतियों और विचारधाराओं की लड़ाई बन चुकी है।

कुल मिलाकर, कांग्रेस और सपा के बीच मुस्लिम वोट बैंक को लेकर चल रही खींचतान ने आगामी चुनावों में गठबंधन की स्थिरता पर सवाल खड़ा कर दिया है। अगर दोनों दल समय रहते एक साझा रणनीति नहीं बनाते और आपसी बयानबाजी को नहीं रोकते, तो न केवल मुस्लिम वोट बैंक खंडित होगा, बल्कि बीजेपी को एक बड़ा फायदा मिल सकता है। यह स्थिति केवल उत्तर प्रदेश ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय राजनीति में भी विपक्ष की एकता को प्रभावित कर सकती है। AIMIM और बसपा की मौन सक्रियता और भाजपा की दोहरी रणनीति इस संघर्ष को और भी जटिल बना रही है। ऐसे में 2027 का चुनाव मुस्लिम राजनीति के लिए एक निर्णायक मोड़ साबित हो सकता है।

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