कुशीनगर छोड़ सपा संगठन भंग पंचायत से विधानसभा तक भाजपा को टक्कर देने की तैयारी

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

समाजवादी पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव ने सपा संगठन में अचानक बड़ा उलटफेर करके सबको चौंका दिया। अखिलेश के इस फैसले ने प्रदेश में सियासी हलचल मचा दी है। दरअसल, पार्टी अध्यक्ष अखिलेश यादव ने कुशीनगर जिले को छोड़कर पूरे राज्य की सपा कार्यकारिणी को भंग कर दिया गया है। यह फैसला महज संगठनात्मक बदलाव नहीं है, बल्कि इसके पीछे सपा की एक व्यापक रणनीति है। कहा जा रहा है समाजवादी पार्टी संगठन पीडीए यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक को संगठन में और अधिकार देना चाहती है। इस बदलाव को सपा की 2026 के पंचायत चुनाव और 2027 के विधानसभा चुनाव की तैयारियों से जोड़कर देखा जा रहा है।

बता दें सपा ‘पीडीए’ यानी पिछड़ा, दलित और अल्पसंख्यक समीकरण के सहारे लोकसभा चुनाव 2024 में भाजपा को कड़ी टक्कर दे चुकी है, अब उसी समीकरण को और ज्यादा धार देने की कोशिश में जुट गई है। सपा के प्रदेश अध्यक्ष श्याम लाल पाल ने खुद इस निर्णय की पुष्टि करते हुए कहा है कि कुशीनगर को छोड़कर सभी जिला अध्यक्ष, विधानसभा अध्यक्ष, और फ्रंटल संगठनों को भंग कर दिया गया है। इसका उद्देश्य संगठन को जमीनी स्तर से फिर से खड़ा करना है ताकि सपा की पकड़ गांव, कस्बों और शहरों तक और मजबूत हो सके। यह बदलाव केवल चेहरों का नहीं है, यह उस सोच का हिस्सा है, जिसमें अखिलेश यादव अपने पीडीए फॉर्मूले को ‘मुद्दों की राजनीति’ में तब्दील करने जा रहे हैं।

लोकसभा चुनाव 2024 में सपा ने जिस तरह से 37 सीटें जीतकर अपने परफॉर्मेंस में जबरदस्त सुधार किया, वह पूरी तरह इसी पीडीए फॉर्मूले का असर था। सपा ने गैर-यादव पिछड़े, अनुसूचित जाति और मुसलमानों को एक मंच पर लाकर भाजपा के जातीय गणित को पहली बार गंभीर चुनौती दी। यही वजह है कि अब अखिलेश यादव इस फॉर्मूले को आगे बढ़ाकर 2027 तक उसे वोटों में पूरी तरह तब्दील करने की कोशिश में लगे हैं। 26 दिसंबर 2024 से 25 जनवरी 2025 तक चलने वाला ‘पीडीए चर्चा’ अभियान इसी योजना का हिस्सा था। इस अभियान के तहत प्रदेश की सभी 403 विधानसभा सीटों पर जन संवाद कार्यक्रम आयोजित किए गए, जहां सपा के कार्यकर्ताओं ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के विचारों, संविधान की रक्षा, बेरोजगारी, महंगाई, आरक्षण, जातिगत जनगणना जैसे मुद्दों पर फोकस किया। अखिलेश यादव ने यह भी संकेत दे दिया है कि अगर 2027 में उनकी पार्टी सत्ता में आती है, तो यूपी में जातीय जनगणना करवाई जाएगी। उनका मानना है कि जब तक हर जाति की संख्या स्पष्ट नहीं होगी, तब तक सामाजिक न्याय अधूरा रहेगा। सपा के इस वादे का प्रभाव ग्रामीण और शहरी दोनों इलाकों में देखा जा रहा है, क्योंकि यह मुद्दा पिछड़े वर्गों और दलितों के बीच एक भावनात्मक सवाल बन चुका है। यह सपा की रणनीति का सबसे सशक्त हिस्सा बनता जा रहा है।

लेकिन उत्तर प्रदेश की राजनीति में अकेले सपा ही नहीं है, जो पीडीए पर अपना दांव लगा रही है। कांग्रेस ने भी इस रणनीति को भांप लिया है और उसने भी OBC बिरादरी को साधने की ठानी है। कांग्रेस 14 जून से 15 जुलाई तक पूरे प्रदेश में ‘भागीदारी न्याय सम्मेलन’ आयोजित कर रही है। इसकी शुरुआत लखनऊ से हो रही है। इस अभियान में शिक्षा, रोजगार, न्याय, और जातिगत जनगणना को प्रमुख मुद्दा बनाया गया है। कांग्रेस की यह कवायद दिखाती है कि वह अब सपा की तरह सामाजिक न्याय के एजेंडे को अपनाकर अपनी जमीन तलाशने में लगी है। खासतौर पर सुल्तानपुर, रायबरेली, और अमेठी जैसे इलाकों में कांग्रेस ने ‘संविधान बचाओ सम्मेलन’ की श्रृंखला शुरू की है, जो पार्टी की रणनीति को नया रूप दे रही है।

दूसरी ओर, भाजपा ने भी इस बदलाव को गंभीरता से लिया है। भाजपा जानती है कि अगर पीडीए रणनीति को प्रभावी ढंग से लागू कर दिया गया तो उसका पारंपरिक वोट बैंक प्रभावित हो सकता है। इसलिए भाजपा अब ‘पीडीए’ को नया नाम देने की कोशिश कर रही है ‘पिछड़ा, दलित और अगड़ा’। पार्टी की योजना है कि हिंदू समाज को जातिगत आधार पर एक करने के लिए ओबीसी और उच्च जातियों के बीच की दूरी को पाट दिया जाए। यही वजह है कि भाजपा अब रानी अहिल्याबाई होल्कर, राजा महेंद्र प्रताप सिंह और गोकुल सिंह जैसे ऐतिहासिक चेहरों को सामने लाकर ओबीसी और अगड़ों के बीच सांस्कृतिक एकता का भाव पैदा करना चाहती है। भाजपा ने पूर्वांचल में राजभर, निषाद, कुर्मी और मौर्य जैसे समुदायों को साधने के लिए विशेष रणनीति बनाई है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने हाल ही में सुहेलदेव शौर्य मेले में हिस्सा लेकर संकेत दिया कि राजभर समुदाय को भाजपा अपने साथ बनाए रखना चाहती है। भाजपा के भीतर इस समय 98 जिला और नगर अध्यक्षों में से 70 की नियुक्ति हो चुकी है, और पार्टी बाकी बचे जिलों में ओबीसी नेताओं को तवज्जो देने की तैयारी में है। ऐसा माना जा रहा है कि प्रदेश अध्यक्ष की कुर्सी पर भी किसी ओबीसी चेहरे को लाकर सपा की रणनीति का मुकाबला किया जाएगा।

यह लड़ाई अब महज चुनावी नहीं रही। यह विचारों की, नेतृत्व की, प्रतिनिधित्व की और सामाजिक न्याय की लड़ाई बन चुकी है। अखिलेश यादव ने संगठन में जिस तरह का बड़ा फेरबदल किया है, वह पार्टी के भीतर नई ऊर्जा भरने वाला कदम है। इससे पार्टी में युवा नेतृत्व को बढ़ावा मिलेगा और पीडीए समुदायों को यह भरोसा मिलेगा कि पार्टी उनके प्रतिनिधित्व को प्राथमिकता दे रही है। जल्द ही नए जिला अध्यक्षों और विधानसभा स्तर पर जिम्मेदारों की घोषणा होगी, जिनमें उम्र, जाति और सामाजिक पहचान को लेकर एक नया समीकरण बनाया जाएगा। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि सपा का यह फैसला न सिर्फ संगठन को नए सिरे से खड़ा करेगा, बल्कि इससे पंचायत चुनावों में पार्टी को मजबूती भी मिलेगी। पंचायत चुनाव 2026 में हैं, और अखिलेश की नजर 2027 की विधानसभा चुनावों पर है। अखिलेश यह बखूबी जानते हैं कि अगर 2026 में पंचायत स्तर पर पकड़ बन गई, तो विधानसभा की लड़ाई आधी जीत ली जाएगी।

जहां एक तरफ विपक्षी दल जातीय जनगणना और सामाजिक न्याय को मुद्दा बना रहे हैं, वहीं भाजपा अपने राष्ट्रवादी और सांस्कृतिक एजेंडे से समाज को भावनात्मक तौर पर जोड़ने की कोशिश में लगी है। सवाल यह है कि क्या भाजपा अपने हिंदुत्व और विकास के एजेंडे से पीडीए जैसी सामाजिक रणनीति को मात दे पाएगी? क्या कांग्रेस, जो लंबे समय से यूपी की राजनीति में हाशिए पर रही है, अब इस नई सामाजिक राजनीति में अपनी प्रासंगिकता फिर से बना पाएगी? और सबसे अहम, क्या अखिलेश यादव की पीडीए रणनीति वाकई 2027 में बीजेपी के डबल इंजन को रोक पाएगी? इन सवालों के जवाब फिलहाल समय के गर्भ में छिपे हैं, लेकिन इतना तय है कि उत्तर प्रदेश की राजनीति अब परंपरागत नहीं रही। अब यहां जाति, विचार, मुद्दे और प्रतिनिधित्व के नए समीकरण बन रहे हैं, जो सिर्फ चुनाव नहीं, बल्कि भविष्य की राजनीति की दिशा तय करेंगे। सपा की पीडीए रणनीति, कांग्रेस की भागीदारी पहल और भाजपा की सांस्कृतिक जवाबी कार्रवाई ये तीनों मिलकर यूपी को 2027 तक एक ऐसे सियासी युद्धभूमि में बदलने जा रही हैं, जहां हर कदम सोच-समझकर उठाना होगा। यहां अब नारे नहीं, ठोस योजनाएं और भरोसेमंद नेतृत्व ही जीत की कुंजी होंगे।

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