विपक्ष की पुरानी राजनीति बनाम मोदी सरकार की 11 साल की सियासी यात्रा लोकतंत्र की असली परीक्षा

नरेंद्र मोदी की अगुवाई में केंद्र सरकार के 11 वर्ष पूरे हो चुके हैं। इस एक दशक से ज्यादा समय में भारत की राजनीति, शासन प्रणाली और विकास की दिशा में कई उल्लेखनीय परिवर्तन हुए हैं। कुछ के लिए यह बदलाव सकारात्मक रहे, तो कुछ के लिए यह चिंता का कारण। लेकिन हैरानी तब होती है जब इन 11 वर्षों के आकलन के दौरान विपक्ष, विशेष रूप से कांग्रेस, बार-बार वही पुराने आरोप दोहराने लगता है। कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे का यह बयान कि “मोदी सरकार ने 11 साल बर्बाद कर दिए और इन सालों में सिर्फ तानाशाही की स्याही संविधान पर पोती गई,” यह बताने के लिए काफी है कि विपक्ष आज भी विरोध के लिए विरोध की राह पर चल रहा है।

विपक्ष की आलोचना का अधिकार लोकतंत्र की नींव है, लेकिन यह आलोचना तब खोखली लगती है जब उसमें कोई वैकल्पिक सोच या समाधान न हो। विपक्ष केवल सरकार को तानाशाही कहकर या आरएसएस और भाजपा पर संस्थाओं को कमजोर करने का आरोप लगाकर जनता का भरोसा नहीं जीत सकता। और जब यह आरोप ऐसे समय पर लगाए जाएं जब देश 25 जून 1975 को लगाए गए आपातकाल की 50वीं वर्षगांठ की ओर बढ़ रहा हो, तो बात और भी उलझ जाती है। आखिर आपातकाल का वह दौर भारतीय लोकतंत्र का सबसे काला समय था, जब प्रेस की आजादी छीनी गई, विपक्षी नेताओं को जेल में डाला गया, और आम जनता की आवाज दबा दी गई थी। उस दौर को याद करते हुए कांग्रेस को आत्मचिंतन करना चाहिए, न कि दूसरों पर तानाशाही का आरोप मढ़ना चाहिए।

कांग्रेस यह कह रही है कि मोदी सरकार ने लोकतंत्र की संस्थाओं को कमजोर कर दिया है, जबकि सरकार का दावा है कि उसने विकास को नई दिशा दी है। सरकार की ओर से जीडीपी वृद्धि, डिजिटल इंडिया, जनधन योजना, उज्ज्वला, आधार, इनफ्रास्ट्रक्चर, सड़कें, एक्सप्रेसवे, और बुलेट ट्रेन जैसे कई आंकड़े गिनाए जाते हैं। वहीं विपक्ष का तर्क है कि इन योजनाओं के पीछे जनहित कम और प्रचार ज्यादा है। लेकिन सवाल यह उठता है कि कांग्रेस इन वर्षों में क्या करती रही? लोकसभा में विपक्ष का नेता तक तय नहीं कर पाने वाली कांग्रेस, जिसने पूरे समय केवल ट्वीट और प्रेस कांफ्रेंस तक सीमित आलोचना की, वह क्या इस योग्य है कि वह सरकार के 11 वर्षों का निष्पक्ष मूल्यांकन कर सके?

जिन संस्थाओं को लेकर विपक्ष सरकार पर हमला करता है, उन्हीं संस्थाओं में कांग्रेस की सरकारों के समय क्या नहीं हुआ? न्यायपालिका में तबादलों का दबाव, प्रेस सेंसरशिप, राज्यपालों की भूमिका में हस्तक्षेप, यह सब कांग्रेस के शासन में भी हुए हैं। इसीलिए जब कांग्रेस तानाशाही का आरोप लगाती है, तो आम नागरिक को यह दोहरा मापदंड लगता है। देश की जनता ने जब 2014 में मोदी को मौका दिया था, तो बदलाव की उम्मीद थी। और जब 2019 में एक और बड़ा जनादेश मिला, तो यह स्पष्ट था कि देश किसी स्थिर, निर्णायक नेतृत्व की ओर बढ़ रहा है। 2024 में तीसरी बार केंद्र में सत्ता में आना भी इस बात का संकेत है कि जनता अभी भी मोदी सरकार पर भरोसा कर रही है।

यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दल सरकार के हर निर्णय का विरोध करने के चक्कर में खुद ही दिशाहीन हो गए हैं। यही कारण है कि संसद में बहस के बजाय वॉकआउट, सड़कों पर आंदोलन के बजाय प्रतीकात्मक प्रदर्शन और मीडिया में केवल बयानबाज़ी के भरोसे विपक्ष चल रहा है। दिल्ली में युवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं द्वारा प्रधानमंत्री का पुतला जलाना इसी राजनीति का उदाहरण है यह प्रदर्शन कम और नकारात्मकता का प्रदर्शन ज्यादा था।

लोकतंत्र में सत्ता और विपक्ष दोनों आवश्यक हैं। एक रथ के दो पहिए कहे जाने वाले ये दोनों पक्ष अगर एक-दूसरे को दुश्मन मानने लगें तो यह लोकतंत्र की मूल आत्मा के खिलाफ है। सत्तापक्ष को जहां विपक्ष की आलोचना का सम्मान करना चाहिए, वहीं विपक्ष को भी यह समझना चाहिए कि सरकार को हर मुद्दे पर घेरना जरूरी नहीं, बल्कि जहां उचित हो, वहां सहयोग भी जरूरी होता है। आज की राजनीति में यह संवाद गायब हो गया है। सत्ता और विपक्ष के बीच संवादहीनता, देश के लिए संकट का कारण बन रही है।

देश को विपक्ष की जरूरत है, लेकिन ऐसा विपक्ष जो वैकल्पिक सोच और योजना के साथ सामने आए। आज विपक्ष का सबसे बड़ा संकट यही है उसके पास न तो स्पष्ट रणनीति है, न ही नेता जिसे पूरा देश एकजुट होकर स्वीकार करे। ‘इंडिया गठबंधन’ जैसी कोशिशें भी नतीजा नहीं दे पा रहीं क्योंकि उनके भीतर आपसी मतभेद इतने गहरे हैं कि वे जनता के सामने एकजुट विकल्प नहीं बन पा रहे।

आज जब देश के सामने बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण जैसे असल मुद्दे हैं, विपक्ष को चाहिए कि वह इन पर केंद्र सरकार से तीखे सवाल पूछे, लेकिन साथ ही अपने समाधानों को भी सामने लाए। विरोध का उद्देश्य सिर्फ सत्ता को घेरना नहीं, बल्कि जनता के सामने बेहतर विकल्प रखना भी होना चाहिए। लेकिन जब केवल आलोचना होती है, जब कोई वैकल्पिक नीति नहीं दी जाती, तब वह आलोचना महज राजनीति बनकर रह जाती है, जन आंदोलन नहीं।

मोदी सरकार के 11 वर्षों में कई चीजें बदली हैं। वैश्विक मंचों पर भारत की स्थिति मजबूत हुई है, चीन-पाकिस्तान जैसे देशों से रिश्तों को लेकर स्पष्ट नीति दिखाई देती है, और आर्थिक मोर्चे पर स्थायित्व बना है। लेकिन यह भी सही है कि हर सरकार को आत्मसमीक्षा करनी चाहिए। आलोचना और संवाद ही लोकतंत्र को जीवित रखते हैं। लेकिन यह संवाद तब ही संभव है जब दोनों पक्ष खुलकर बात करें, एक-दूसरे की नीयत पर शक करने के बजाय उनके सुझावों और समस्याओं को समझने की कोशिश करें।

आज के दौर में जब सोशल मीडिया, डिजिटल प्लेटफॉर्म और लाइव प्रसारण ने राजनीति को 24×7 बहस का मंच बना दिया है, ऐसे में दोनों पक्षों की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। सत्ता पक्ष को अपनी उपलब्धियों के साथ जनता से जुड़ना चाहिए, लेकिन विपक्ष को भी सोशल मीडिया पर ट्रेंड चलाने से ऊपर उठकर जमीनी मुद्दों पर काम करना होगा।

एक सशक्त लोकतंत्र वही होता है जहां सत्ता से सवाल किए जाएं, लेकिन साथ ही, सवाल करने वाले स्वयं को भी उत्तर देने के लिए तैयार रखें। दुर्भाग्य से वर्तमान में यह संतुलन बिगड़ चुका है। ऐसे में जरूरी है कि सत्ता और विपक्ष दोनों अपने-अपने आईने में झांकें। क्योंकि जब तक संवाद नहीं होगा, तब तक न ताली बजेगी और न लोकतंत्र की असली आवाज़ सुनाई देगी।

Related Articles

Back to top button