राहुल गांधी के ‘लंगड़ा घोड़ा’ बयान से कांग्रेस में संगठन सुधार का विवाद और अंदरूनी फूट बढ़ी

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

कांग्रेस पार्टी में इन दिनों कुछ अलग ही किस्म की सियासी हलचल है। राहुल गांधी के नेतृत्व में चलाया जा रहा संगठन सृजन अभियान धीरे-धीरे एक ऐसा स्वरूप लेता जा रहा है, जहां सुधार की कोशिशों के बीच अंतर्विरोध भी सतह पर आ रहे हैं। राहुल गांधी ने हाल ही में कांग्रेस के पुराने और निष्क्रिय नेताओं को ‘लंगड़ा घोड़ा’ कहकर संबोधित किया और इशारा किया कि अब ऐसे नेताओं को पार्टी से रिटायर करने का वक्त आ गया है। मध्य प्रदेश में हुई एक बैठक में उन्होंने स्पष्ट रूप से पार्टी नेताओं को तीन श्रेणियों में बांट दिया रेस के घोड़े, बारात के घोड़े और लंगड़े घोड़े। इस बयान ने न केवल पार्टी के भीतर हलचल मचा दी बल्कि बाहर से भी तीखी प्रतिक्रियाएं आने लगीं। विकलांगता अधिकार कार्यकर्ताओं ने ‘लंगड़ा घोड़ा’ जैसे शब्द को अपमानजनक करार देते हुए विरोध दर्ज कराया है, वहीं पार्टी के भीतर बैठे वरिष्ठ नेता भी असहज महसूस कर रहे हैं, भले ही वे सार्वजनिक रूप से कुछ न कह पा रहे हों।
राहुल गांधी की मंशा यदि संगठन को मजबूत करने की है, तो इस पर सवाल नहीं उठाए जा सकते, लेकिन तरीका जरूर चर्चा में है। कांग्रेस की राजनीति में लंबे समय से मौजूद नेताओं को इस तरह के नामों से पुकारना क्या उस संस्कृति के विपरीत नहीं है जिसकी बात राहुल गांधी खुद करते आए हैं? यह सच है कि पार्टी में ऐसे कई नेता हैं जिनकी सक्रियता पर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन उन्हें ‘लंगड़ा घोड़ा’ कहकर सार्वजनिक रूप से निशाना बनाना, एक ऐसे नेता के लिए भी उचित नहीं लगता जो खुद संवेदनशीलता और संवाद की बात करता है। कांग्रेस के संगठनात्मक ढांचे में परिवर्तन की जरूरत से इनकार नहीं किया जा सकता, लेकिन यह सवाल भी उतना ही जरूरी है कि यह बदलाव कितनी समग्रता से और कितनी ईमानदारी से किया जा रहा है।

राहुल गांधी जिस प्रकार राज्यों में जाकर घोड़ों के किस्से सुना रहे हैं, यह प्रतीकात्मकता भी ध्यान खींचती है। गुजरात से शुरुआत करके मध्य प्रदेश तक पहुंचे इस अभियान में उन्होंने ऐसे नेताओं को बीजेपी का एजेंट या मुखबिर तक कहा है। सवाल उठता है कि क्या राहुल गांधी को यह यकीन है कि पार्टी के भीतर ऐसे ही नेता सिर्फ राज्यों में हैं? क्या दिल्ली में उनके आसपास भी वही ‘लंगड़े घोड़े’ मौजूद नहीं हो सकते जिन पर वो दूसरे राज्यों में हमला कर रहे हैं? अगर संगठन में सफाई करनी है तो शुरुआत ऊपर से ही क्यों न हो? संगठनात्मक सफाई तभी प्रभावी होती है जब वह ऊपर से नीचे की ओर फैले, केवल निचले स्तर पर की गई छंटनी एकपक्षीय मानी जाती है। और यह भी उतना ही महत्वपूर्ण है कि जो नेता पार्टी हित में सुधार की बात करते हैं, उन्हें भी ‘लंगड़ा घोड़ा’ कहकर खारिज न किया जाए।

G-23 के नेताओं का उदाहरण सामने है। गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ नेता जिन्होंने कांग्रेस को दशकों तक सेवा दी, उन्हें उसी कैटेगरी में रख दिया गया और धीरे-धीरे पार्टी से बाहर कर दिया गया। राहुल गांधी जब रेस के घोड़े और बारात के घोड़े की बात करते हैं, तो यह विचार करना जरूरी है कि पार्टी ने रेस के घोड़ों को समय पर पहचानने में चूक की या जानबूझकर उन्हें नजरअंदाज किया? क्या यह पार्टी की संरचनात्मक असफलता नहीं थी कि उसने योग्य नेताओं को समय पर मंच नहीं दिया, और जब उन्होंने असंतोष जताया तो उन्हें अलग-थलग कर दिया गया? यही बात कपिल सिब्बल ने भी अपनी चिट्ठियों और बयानों में कही थी कि क्या कांग्रेस को तब ही जागना चाहिए जब अस्तबल से घोड़े निकल जाते हैं?

शशि थरूर जैसे नेता आज भी कांग्रेस के भीतर हैं और लगातार पार्टी के भीतर लोकतांत्रिक चर्चाओं और सुधार की वकालत करते रहे हैं। लेकिन उनके साथ भी व्यवहार ऐसा ही रहा है, जैसे वह ‘अन्य’ हैं, जैसे वे पार्टी के दायरे से बाहर कोई आवाज हैं। हाल ही में जब राहुल गांधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के सामने ‘सरेंडर’ करने का आरोप लगाया, तो थरूर से वाशिंगटन डीसी में इस बयान पर प्रतिक्रिया मांगी गई। शशि थरूर ने संयमित भाषा में कहा कि वे अमेरिकी राष्ट्रपति का सम्मान करते हैं और भारत को किसी मध्यस्थ की जरूरत नहीं है। यह बयान राहुल गांधी के बयान से भिन्न था, लेकिन क्या इस तरह की स्वतंत्र राय पार्टी में स्थान रखती है? क्या यह लोकतंत्र नहीं है कि पार्टी के भीतर मतभेद को भी स्थान मिले?

कांग्रेस में यह प्रवृत्ति बढ़ती दिख रही है कि जो नेता नेतृत्व के फैसलों पर सवाल उठाते हैं या अलग राय रखते हैं, उन्हें पार्टी-विरोधी या असहयोगी मान लिया जाता है। ऐसे माहौल में संगठनात्मक सुधार सिर्फ सतही बनकर रह जाएगा। कांग्रेस के भीतर ही कई युवा और अनुभवी नेता हैं, जो पार्टी को फिर से जनता के बीच लेकर जाने की रणनीति बनाना चाहते हैं, लेकिन नेतृत्व अगर आलोचना को ही दुश्मनी मानने लगे, तो रचनात्मक संवाद की गुंजाइश खत्म हो जाती है। राहुल गांधी के संगठन सृजन अभियान की गंभीरता तभी साबित होगी जब वह सिर्फ पुराने नेताओं की छंटनी भर न होकर, पार्टी के आंतरिक लोकतंत्र की पुनर्स्थापना के लिए भी प्रतिबद्ध हो।

यह भी सच है कि कांग्रेस को नए चेहरों की जरूरत है, जो जमीनी स्तर पर काम कर सकें और जनता से सीधे संवाद स्थापित कर सकें। लेकिन पार्टी को अपने उन नेताओं की भी जरूरत है, जिन्होंने वर्षों तक न केवल कांग्रेस को जिंदा रखा, बल्कि उसकी विचारधारा को जनता के बीच जीवंत बनाए रखा। पुराने और नए का संतुलन ही कांग्रेस की ताकत बन सकता है, न कि एकतरफा बदलाव जिसमें अतीत को ही बोझ मान लिया जाए। राहुल गांधी को यह समझने की जरूरत है कि संगठन निर्माण केवल भाषणों और प्रतीकों से नहीं होता, बल्कि विश्वास और समावेश की भावना से होता है।

अंत में, कांग्रेस पार्टी के सामने सबसे बड़ी चुनौती यही है कि वह अपने भीतर चल रहे अंतर्विरोधों को सुलझाए और संगठन में ऐसा माहौल बनाए जिसमें हर आवाज को सुना जाए। पार्टी को यह भी समझना होगा कि माफी मांगना और गलती स्वीकार करना बड़ी बात है, लेकिन अपनी ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को अपमानजनक उपमाओं से नवाजना केवल सियासी दिखावे तक सीमित न रहे। यह आत्मचिंतन का समय है, जहां राहुल गांधी को यह सोचना होगा कि संगठन सृजन का यह अभियान कहीं खुद पार्टी को और अधिक विभाजित तो नहीं कर रहा। कांग्रेस को यदि देश की राजनीति में प्रासंगिक बने रहना है, तो उसे पहले अपने भीतर समावेश, सम्मान और संवाद को मजबूत करना होगा, वरना घोड़ों के अस्तबल से निकलने के बाद जागने का सवाल शाश्वत बना रहेगा।

Related Articles

Back to top button