गठबंधन को तरसती AIMIM ओवैसी की पलटी चाल से क्या टूटेगा बीजेपी की B-Team वाला ठप्पा?

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी AIMIM यानी ऑल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुस्लिमीन एक बार फिर बिहार की सियासी ज़मीन पर अपने पाँव मज़बूत करने की कोशिश में जुट गई है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में सीमांचल की पांच सीटें जीतकर उन्होंने जो राजनीतिक ज़ोर दिखाया था, वह अब फिर से दोहराने की तैयारी हो रही है। लेकिन इस बार AIMIM का अंदाज़ पहले से थोड़ा अलग है। जहां पहले वो अलग चुनाव लड़ने और सेक्युलर दलों को चुनौती देने की मुद्रा में थी, अब ओवैसी की पार्टी महागठबंधन में शामिल होने के लिए ख़ासे उत्साहित दिख रही है। सवाल यह है कि AIMIM की यह बेचैनी आखिर किस वजह से है? क्या वाकई ओवैसी बीजेपी की ‘बी-टीम’ वाली छवि से बाहर निकलना चाहते हैं या फिर बात सिर्फ मुस्लिम वोटों को बचाए रखने की रणनीति है?2020 के चुनावों की बात करें तो AIMIM ने सीमांचल की 20 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे थे। इनमें से पांच सीटों पर उसे जीत मिली, जो पूरी तरह मुस्लिम बहुल थीं। इन सीटों की जीत ने ओवैसी को राजनीतिक आत्मविश्वास दिया कि वह बिहार जैसे राज्य में भी प्रभावी हो सकते हैं। लेकिन यह सफलता ज्यादा समय तक टिक नहीं सकी। चुनाव के बाद AIMIM के पांच में से चार विधायक RJD के पाले में चले गए। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ही अकेले बचे जो AIMIM के साथ डटे रहे। इस टूट ने ओवैसी को एहसास कराया कि जीत केवल चुनावी नहीं, संगठनात्मक भी होनी चाहिए।

अब जबकि बिहार में फिर से चुनावी हलचल तेज़ हो रही है, AIMIM ने एक बड़ा सियासी कदम उठाया है। पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अख्तरुल ईमान ने खुलकर कहा है कि सांप्रदायिक ताकतों को रोकने के लिए एक मज़बूत गठबंधन जरूरी है और इसीलिए AIMIM ने RJD और कांग्रेस के साथ गठबंधन की पेशकश की है। AIMIM की यह पेशकश हैरतअंगेज़ इसलिए मानी जा रही है क्योंकि कुछ ही समय पहले तक ओवैसी खुद तेजस्वी यादव को चुनौती देते दिखते थे। उन्होंने तो यहां तक कह दिया था कि इस बार AIMIM बिहार में 25 सीटें जीतकर दिखाएगी और 2020 के विधायकों के ‘धोखे’ का हिसाब लेगी।लेकिन अब सियासत की गर्मी जैसे-जैसे बढ़ रही है, AIMIM का स्वर नरम होता जा रहा है। पार्टी की बेचैनी इस बात से समझी जा सकती है कि ओवैसी इस बार सीमांचल ही नहीं बल्कि राज्य के दूसरे हिस्सों जैसे मिथिलांचल, शाहाबाद, भोजपुर और सारण तक में अपने उम्मीदवार उतारने की योजना बना रहे हैं। लेकिन उन्हें यह भी समझ में आ गया है कि अगर वो अकेले चुनाव लड़ते हैं, तो ना केवल RJD और कांग्रेस उन्हें बीजेपी की ‘बी-टीम’ कहकर बदनाम करेंगी, बल्कि मुस्लिम वोटों का भी बड़ा हिस्सा उनसे छिटक सकता है।

वास्तव में यह ‘बी-टीम’ का टैग ही AIMIM की सबसे बड़ी सियासी दिक्कत बन गया है। 2020 के चुनाव के बाद से लेकर अब तक, कांग्रेस और RJD समेत तमाम सेक्युलर पार्टियां AIMIM पर ये आरोप लगाती रही हैं कि वो चुनाव लड़कर बीजेपी को फायदा पहुंचाती है। कांग्रेस और RJD यह दावा करती हैं कि अगर ओवैसी 2020 में सीमांचल में नहीं लड़ते, तो कई सीटें NDA नहीं जीत पाता। यह नैरेटिव मीडिया से लेकर ज़मीन तक फैल चुका है और इसका असर AIMIM के वोटबैंक पर भी दिखने लगा है।ओवैसी अच्छी तरह जानते हैं कि अगर यह धारणा टूटती नहीं, तो मुस्लिम मतदाता उन्हें गंभीरता से नहीं लेंगे। मुस्लिम समाज में यह भावना गहराई से घर कर गई है कि AIMIM जीत तो सकती है, लेकिन बीजेपी को रोक नहीं सकती। ऐसे में AIMIM का महागठबंधन में शामिल होने की पेशकश एक राजनीतिक दांव भी है और रणनीति भी। यह कहना गलत नहीं होगा कि AIMIM गठबंधन में शामिल होने की पेशकश कर सिर्फ एक सियासी संदेश देना चाहती है”हम तो साथ आना चाहते थे, मगर उन्होंने ही हमें नहीं लिया।”

यह बयानबाज़ी मुस्लिम मतदाताओं के बीच AIMIM की छवि को साफ करने की कोशिश है। दरअसल, बिहार में 2025 के विधानसभा चुनाव एकतरफा नहीं होंगे। एक ओर NDA है, जिसमें नीतीश कुमार फिर से मुख्यमंत्री पद के दावेदार होंगे, तो दूसरी ओर INDIA गठबंधन के चेहरे तेजस्वी यादव होंगे। इन दोनों ताकतों के बीच AIMIM की मौजूदगी तभी मायने रखेगी जब वह मुस्लिम वोटों में सेंध लगा सके। लेकिन यही सबसे बड़ा खतरा भी है।AIMIM को यह डर सता रहा है कि मुस्लिम वोटर फिर से RJD और कांग्रेस की ओर लौट सकता है। सीमांचल के कई इलाकों में AIMIM के कार्यकर्ताओं ने पिछले कुछ समय में पार्टी का साथ छोड़ा है। जिन चार विधायकों ने RJD का दामन थामा, उनकी वापसी भी AIMIM को लेकर संदेह पैदा करती है। इसके अलावा वक्फ संपत्तियों के मुद्दे से लेकर मुस्लिम विरोधी हिंसा पर AIMIM की भूमिका को लेकर भी मुस्लिम समाज में सवाल उठते रहे हैं। RJD और कांग्रेस ने कम से कम इन मुद्दों पर सड़कों पर उतरकर प्रदर्शन किया है, जबकि AIMIM की आवाज़ सोशल मीडिया तक सीमित रही।

एक और कारण है, जो AIMIM की बेचैनी की जड़ में है वोट बिखराव का डर। ओवैसी यह जानते हैं कि अगर मुसलमानों के वोट AIMIM, RJD और कांग्रेस में बंट गए तो सीधा फायदा बीजेपी को होगा। यही कारण है कि अख्तरुल ईमान बार-बार यह कह रहे हैं कि अगर गठबंधन नहीं हुआ तो हमें दोष न दिया जाए। दरअसल, AIMIM पहले ही महाराष्ट्र और बंगाल जैसे राज्यों में गठबंधन की पेशकश कर चुकी है, लेकिन वहां उसे सफलता नहीं मिली। ऐसे में बिहार उसके लिए आखिरी बड़ा मोर्चा है, जहां वह मुस्लिम वोटों के दम पर एक बार फिर अपने पैर जमाना चाहता है।AIMIM का यह सियासी रुख RJD और कांग्रेस के लिए भी किसी चुनौती से कम नहीं है। अगर वे AIMIM को साथ लेते हैं तो सीमांचल की सीटों पर उन्हें कुछ समझौते करने होंगे। लेकिन अगर वे AIMIM को नजरअंदाज करते हैं, तो ओवैसी का वही पुराना आरोप फिर से उठ खड़ा होगा कि ‘सेक्युलर’ दल मुस्लिमों की बात तो करते हैं, लेकिन मुस्लिम नेतृत्व को स्वीकार नहीं करते।

सियासत के इस पेचोखम में AIMIM ने चाल तो चली है, लेकिन यह चाल सफल होगी या नहीं, यह गठबंधन की राजनीतिक इच्छाशक्ति पर निर्भर करेगा। फिलहाल AIMIM की कोशिश साफ है वह खुद को बीजेपी की बी-टीम के ठप्पे से मुक्त करना चाहती है, मुस्लिम वोटों को एकजुट रखना चाहती है और बिहार की सियासत में अपनी अहमियत फिर से स्थापित करना चाहती है।लेकिन क्या कांग्रेस और RJD AIMIM के साथ आने को तैयार होंगे? क्या AIMIM की यह पेशकश वाकई गंभीर है या सिर्फ एक नैरेटिव बदलने की कोशिश? और क्या सीमांचल की सियासत फिर से AIMIM को मौका देगी या इस बार मुस्लिम वोटों का रुझान कुछ और होगा? इन सभी सवालों के जवाब तो चुनाव के नतीजे ही देंगे, लेकिन एक बात तय है AIMIM की चालें अब चुपचाप नहीं बल्कि साफ-साफ दिखने लगी हैं।

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