बिहार में सवर्ण वोटरों का टूटता भरोसा बीजेपी की सत्ता पर बड़ी चोट

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की सियासत में इन दिनों एक नई और गंभीर चिंता उभर कर सामने आ रही है, जो सीधे तौर पर बीजेपी की रणनीति और उसके वोट बैंक से जुड़ी है। खासकर सवर्ण वोटरों के प्रति पार्टी की पकड़ कमजोर पड़ती दिख रही है। विधानसभा चुनावों से ठीक पहले इस बात के संकेत साफ-साफ मिलने लगे हैं कि बिहार में सवर्ण समुदाय, जो परंपरागत रूप से बीजेपी का मजबूत आधार माना जाता रहा है, अब कहीं न कहीं बीजेपी से दूरी बनाने लगा है। यह चिंता बीजेपी नेतृत्व को इतनी गंभीर लगी है कि सरकार ने सवर्ण आयोग बनाने जैसे बड़े फैसले भी लिए हैं, जो सवर्ण हितों की ओर उनका संदेश माना जा रहा है। इस बीच, एक और दिलचस्प राजनीतिक घटनाक्रम सामने आया है, जब बीजेपी के एक बड़े नेता ने 50 साल पुराने पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र हत्याकांड की जांच फिर से कराने की मांग की। ये दोनों घटनाएं सिर्फ सियासी हथकंडे नहीं हैं, बल्कि बिहार में बीजेपी के सवर्ण वोटर आधार के सिकुड़ने की गहरी चिंता की तस्दीक करती हैं।

सवर्णों के बीच बीजेपी का मोहभंग होना किसी नई बात से कम नहीं है। बिहार में 2023 में नीतीश कुमार सरकार ने जातिगत सर्वे जारी किया, जिसमें ओबीसी, अति पिछड़ा और दलित वर्गों को आरक्षण में बढ़ावा देने की बात की गई। इस सर्वे ने 65 प्रतिशत आरक्षण तक पहुंचने की संभावना जताई, जिससे सवर्णों के मन में यह धारणा बन गई कि बीजेपी अब उन्हें छोड़ रही है। दरअसल, बीजेपी के लिए नीतीश कुमार के साथ गठबंधन ने इस मुद्दे पर उनकी आवाज को कम कर दिया है। जबकि बीजेपी ने इस सर्वे का विरोध किया, लेकिन राजनीतिक गठजोड़ के कारण उनका विरोध कमजोर नजर आया। केंद्र की एनडीए सरकार ने भी जातिगत जनगणना कराने की हामी भर दी है, जिससे सवर्ण वर्ग की आशंकाएं और बढ़ गई हैं। उन्हें यह डर सता रहा है कि आरक्षण की सीमा बढ़ाने की मांग स्वीकार हो जाएगी और उनका राजनीतिक महत्व घटेगा। ऐसे में खासकर युवा सवर्ण वोटर जो पहले बीजेपी के प्रति वफादार थे, अब निराश हो रहे हैं। ये युवा वर्ग जातिगत जनगणना, नीतीश के गठबंधन और सवर्ण-केंद्रित नीतियों की कमी से नाराज दिख रहा है। उनकी आखिरी उम्मीद भी बीजेपी ही थी, लेकिन पिछड़ा वर्ग की राजनीति को बीजेपी ने खुलकर अपनाना शुरू कर दिया है, जिससे सवर्णों का मोहभंग होना स्वाभाविक हो गया है।

इसी राजनीतिक माहौल में बीजेपी ने एक पुरानी और विवादित रणनीति अपनाई है, जो है 50 साल पुराने पूर्व रेलमंत्री ललित नारायण मिश्र के हत्याकांड की जांच फिर से कराने की मांग। अश्विनी चौबे जैसे बीजेपी के बड़े नेताओं ने इस मामले को उठाकर कांग्रेस पर हमला बोला है, क्योंकि यह हत्याकांड कांग्रेस के शासनकाल का एक विवादित अध्याय माना जाता है। बीजेपी की यह चाल साफ दिखाती है कि वह कांग्रेस को ब्राह्मणों और सवर्णों की दुश्मन पार्टी साबित करना चाहती है। ललित नारायण मिश्र की हत्या राजनीतिक विवादों से भरी रही है। उस समय की जांच में आरोपियों को सजा मिली, लेकिन परिवार का मानना है कि असली साजिशकर्ताओं को बचा लिया गया था। अब जब बीजेपी इस मुद्दे को उठाकर राजनीतिक फायदा उठाने की कोशिश कर रही है, तो मिथिलांचल और अन्य ब्राह्मण बहुल क्षेत्रों में यह मामला वोट बैंक के लिए एक हथियार बन गया है। कोर्ट में चल रही सुनवाई और मिश्र परिवार की सक्रियता इस मामले को चुनावी राजनीति में और भी गरमाएगी, जिससे बीजेपी की रणनीति और सशक्त होगी।

दूसरी ओर, कांग्रेस ने भी सवर्ण वोटरों को अपने पक्ष में करने की तैयारी कर ली है। बिहार में कांग्रेस ने 2023 में 38 जिलाध्यक्षों में से 25 को सवर्ण समुदाय से चुना है, जिसमें ब्राह्मण, भूमिहार और राजपूत प्रमुख हैं। यह साफ संकेत है कि कांग्रेस ने सवर्ण-केंद्रित रणनीति को प्राथमिकता दी है। मिथिलांचल जैसे ब्राह्मण बहुल क्षेत्र में कांग्रेस ने मदन मोहन झा जैसे ब्राह्मण नेताओं को आगे बढ़ाया है, जो पार्टी की सवर्ण समुदाय में पैठ को मजबूत कर रहे हैं। राहुल गांधी की पटना यात्राएं, जैसे संविधान सुरक्षा सम्मेलन और जगलाल चौधरी जयंती, कांग्रेस की सवर्ण सक्रियता का प्रमाण हैं। कन्हैया कुमार को सवर्ण युवाओं के लिए रोजगार और शिक्षा के मुद्दों पर काम करने की जिम्मेदारी दी गई है, जिससे युवाओं का समर्थन पाने की कोशिश की जा रही है। कन्हैया की ब्राह्मण-पृष्ठभूमि और वक्तृत्व क्षमता बिहार के सवर्ण युवाओं को कांग्रेस की ओर आकर्षित कर रही है। स्वतंत्रता के बाद बिहार में कांग्रेस सवर्णों की पार्टी रही है और आज भी कई पुराने ब्राह्मण वोटर कांग्रेस को अपनी ऐतिहासिक पार्टी मानते हैं।

प्रशांत किशोर की जनसुराज पार्टी ने भी सवर्ण वोटरों को लुभाने की कोशिश तेज कर दी है। किशोर स्वयं ब्राह्मण समुदाय से आते हैं और उनकी स्वच्छ राजनीति की छवि उन्हें सवर्ण युवाओं में लोकप्रिय बना रही है। किशोर ने मिथिलांचल में ब्राह्मण समुदाय को साधने के लिए रैलियां की हैं, साथ ही राजपूत वोटरों के लिए पूर्व सांसद उदय सिंह को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया है। उनकी रणनीति BRDK यानी ब्राह्मण, राजपूत, दलित और कुर्मी समुदायों को एकजुट करने की है। जनसुराज ने 2024 के चार विधानसभा उपचुनावों में हिस्सा लिया, हालांकि कोई सीट नहीं जीती, फिर भी सवर्ण-प्रधान क्षेत्रों में उन्हें कुछ वोट मिले, जो बीजेपी के लिए खतरे का संकेत है।

बीजेपी की चिंता की वजह यह भी है कि 2024 के लोकसभा चुनावों में उसकी सीटें 39 से घटकर 30 रह गईं। बक्सर जैसे सवर्ण-प्रधान क्षेत्रों में पार्टी को कड़ी टक्कर मिली। मिथिलेश तिवारी की हार इस बात का साफ संकेत थी कि सवर्ण वोटों का बंटवारा हो रहा है। यह सब मिलकर यह दर्शाता है कि बिहार में सवर्ण वोट बैंक अब बीजेपी के लिए आसान नहीं रहा। युवा सवर्ण वर्ग विशेष रूप से शिक्षा, रोजगार और सामाजिक न्याय के मुद्दों को लेकर नाराज है। वे बीजेपी की हिंदुत्व और पिछड़ा वर्ग केंद्रित नीतियों से असंतुष्ट हैं। ऐसे में कांग्रेस, जनसुराज और अन्य स्थानीय पार्टियां इस खाली पड़े वोट बैंक को भुनाने की पूरी कोशिश में हैं।

बिहार विधानसभा चुनाव से पहले यह राजनीतिक परिदृश्य बहुत ही पेचीदा और चुनौतीपूर्ण है। बीजेपी के लिए यह चुनौती है कि वह सवर्णों के खोते समर्थन को कैसे वापस लाए। इसके लिए नीतिगत बदलाव और जनसंपर्क की रणनीतियों को मजबूती देना होगा। वहीं, कांग्रेस और अन्य पार्टियां इस मौके को भुनाकर सवर्ण वोटों को अपने पक्ष में करने की जद्दोजहद में लगी हैं। बिहार की राजनीति में सवर्ण वोटों की इस खींचतान का परिणाम आने वाले चुनावों में साफ दिखेगा।

इस सियासी गतिरोध के बीच, जनता की अपेक्षाएं भी बढ़ गई हैं। वे जातिगत संतुलन, रोजगार, शिक्षा और सामाजिक न्याय के मुद्दों पर सही और न्यायसंगत नीतियां चाहते हैं। बिहार की युवा सवर्ण आबादी विशेष रूप से ऐसे मुद्दों पर सचेत हो चुकी है और वे सिर्फ जातिगत राजनीति नहीं, बल्कि विकास और अवसरों की राजनीति भी देख रही है। ऐसे में जो पार्टी इस वर्ग की उम्मीदों पर खरा उतरेगी, वही बिहार के भविष्य में निर्णायक भूमिका निभाएगी।

अभी बिहार में बीजेपी के लिए चुनौती और मौके दोनों हैं। अगर वह सवर्ण वोटरों की नाराजगी को समझकर नीतिगत सुधार करती है, तो उसकी स्थिति मजबूत हो सकती है। वरना, कांग्रेस और प्रशांत किशोर जैसी पार्टियों के लिए यह एक सुनहरा मौका होगा कि वे बिहार की सियासत में अपना दबदबा बढ़ाएं और सवर्ण वोट बैंक को मजबूती से अपने पक्ष में करें। बिहार की राजनीति इस वक्त एक नया मोड़ ले रही है, जिसमें सवर्ण वोटरों की भूमिका बेहद अहम होगी।

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