बिहार की राजनीति का खेल बिगाड़ने आया चिराग पासवान का नया खेल

बिहार के राजनीतिक माहौल में इन दिनों ऐसा तूफान चल रहा है, जो आने वाले विधानसभा चुनावों की दिशा तय करने में अहम भूमिका निभा सकता है। केंद्रीय मंत्री और लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के राष्ट्रीय अध्यक्ष चिराग पासवान की सियासी चालें इस बार फिर चर्चा का विषय बनी हुई हैं। चिराग पासवान की पार्टी ने शुरू में 30 विधानसभा सीटों के लिए अपनी दावेदारी पेश की थी, लेकिन अब उनकी यह घोषणा कि वे खुद चुनाव लड़ेंगे, बिहार की राजनीति में एक नई गहमागहमी पैदा कर रही है। यह फैसला केवल एक चुनावी रणनीति नहीं बल्कि बिहार में सत्ता के समीकरणों को बदलने की कवायद भी माना जा रहा है। चिराग के इस कदम ने ना केवल राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) में हलचल पैदा कर दी है, बल्कि राजनीतिक विश्लेषक भी इस बात को लेकर उत्सुक हैं कि चिराग का असली इरादा क्या है।

केंद्रीय मंत्री रहते हुए चुनाव लड़ने की बात करना स्वाभाविक रूप से ऐसा संकेत है, जो स्पष्ट करता है कि चिराग का मकसद केवल संसद या केंद्र में मंत्री बनना नहीं है। चिराग की समझदारी और राजनीतिक परिपक्वता का यही सबूत है कि वे जानते हैं कि बिहार में अपनी जड़ें मजबूत किए बिना केंद्र में लंबे समय तक टिक पाना संभव नहीं। उनकी राजनीति का केंद्र बिहार है और यही से उनका सियासी वर्चस्व तय होता है। 2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में उनके पार्टी के परिणाम नाकाफी रहे थे, जिससे यह स्पष्ट होता है कि वह अब मैदान में खुद उतर कर अपनी राजनीतिक जमीन मजबूत करना चाहते हैं। चिराग की रणनीति यह भी हो सकती है कि वे कुछ चुनिंदा सीटों पर सफलता हासिल करके अपनी बार्गेनिंग पावर को बढ़ाना चाहते हैं। इसके साथ ही, यह कदम एनडीए के भीतर उनकी भूमिका को भी सुदृढ़ करेगा।

राजनीतिक गतिशीलता को बहुत ही कुशलता से समझा जा सकता है कि राजनीति में स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होते, बल्कि हितों के आधार पर गठजोड़ और तोड़-फोड़ होती रहती है। चिराग पासवान की इस रणनीति के पीछे यह भी हो सकता है कि वे आगामी समय में बिहार की सत्ता की गलियों में अपनी मजबूत पैठ बनाना चाहते हैं, खासकर तब जब मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के भविष्य को लेकर अनिश्चितता है। ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ जैसे नारे देकर वे अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की कोशिश में जुटे हैं ताकि बिहार की सियासी पिच पर वे मजबूत बने रहें। राजनीतिक इतिहास में कई बार देखा गया है कि कम सीटों वाली पार्टियां भी अपनी सूझ-बूझ और सही वक्त पर सही कदम उठाकर मुख्यमंत्री पद तक पहुंच जाती हैं। इसलिए चिराग के लिए यह चुनाव केवल विधानसभा की लड़ाई नहीं, बल्कि एक बड़ी राजनीतिक लड़ाई है।

इतिहास के पन्नों में अगर झांकें तो 2005 का बिहार चुनाव बहुत कुछ सिखाता है। उस साल दो बार विधानसभा चुनाव हुए थे, जिनमें पहला चुनाव त्रिशंकु जनादेश लेकर आया था। उस समय चिराग के पिता और एलजेपी के संस्थापक रामविलास पासवान केंद्र सरकार में मंत्री थे। लेकिन बिहार की सियासत में एलजेपी ने अकेले ही चुनाव लड़ने का फैसला लिया था। 29 सीटों के साथ एलजेपी ने किंगमेकर की भूमिका निभाई थी, लेकिन सत्ता के लिए जो कागजों पर गठबंधन बने थे, वे धरातल पर सफल नहीं हो पाए। उस समय आरजेडी ने सबसे बड़ी पार्टी के रूप में 75 सीटें जीती थीं, जबकि एनडीए गठबंधन 92 सीटों के साथ सबसे बड़ा गठबंधन था। कांग्रेस, सपा, एनसीपी और लेफ्ट पार्टियां भी अपने-अपने हिस्से की सीटों पर थीं। बावजूद इसके रामविलास पासवान ने मुस्लिम मुख्यमंत्री की मांग कर सियासी समीकरणों को पेचीदा बना दिया था। अंततः नीतीश कुमार की अगुवाई में एनडीए ने सरकार बनाई, लेकिन वह सरकार अल्पमत की थी और ज्यादा दिन नहीं चल सकी। अक्टूबर 2005 में हुए दूसरे चुनाव में एनडीए ने पूर्ण बहुमत हासिल कर सत्ता पर कब्जा किया। इस पूरे घटनाक्रम ने दिखा दिया था कि सत्ता की चाबी किसी एक पार्टी के हाथ में नहीं होती, बल्कि सही समय पर सही रणनीति के आधार पर ही इसका फैसला होता है।

अब सवाल उठता है कि क्या चिराग पासवान 20 साल पुरानी इस कहानी को दोहराना चाहते हैं? 2020 के चुनाव में भी उन्होंने वही रुख अपनाया था जब पार्टी ने 30 सीटों की मांग की थी। जब उनकी मांग पूरी नहीं हुई तो उन्होंने अकेले चुनाव लड़ने का फैसला किया। उस चुनाव में उन्होंने 137 विधानसभा सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारे, खासकर उन जगहों पर जहां जेडीयू चुनाव लड़ रही थी। हालांकि, उस चुनाव में एलजेपी का प्रदर्शन उम्मीदों के अनुरूप नहीं रहा और पार्टी शून्य सीटों पर सीमित रह गई। उस समय चिराग केंद्रीय मंत्री नहीं थे, लेकिन अब जब वे केंद्र सरकार में मंत्री हैं और पार्टी की कमान संभाले हुए हैं, तो उनके लिए यह चुनौती और भी बड़ी है। राजनीतिक हलकों में यह चर्चा भी है कि क्या चिराग इस बार अपनी पार्टी के लिए सत्ता की चाबी हासिल कर पाएंगे, या फिर 2005 और 2020 की तरह ही उन्हें भी राजनीतिक झटके का सामना करना पड़ेगा।

चिराग पासवान की इस रणनीति का एक बड़ा पहलू यह भी है कि वे बिहार की युवा पीढ़ी को अपने साथ जोड़ना चाहते हैं। उन्होंने ‘बिहार फर्स्ट, बिहारी फर्स्ट’ जैसे नारे देकर एक मजबूत स्थानीय पहचान बनाई है, जो उन्हें अन्य नेताओं से अलग करती है। युवा वर्ग में उनकी लोकप्रियता उनके चुनाव लड़ने के निर्णय का एक बड़ा कारण हो सकता है। इसके अलावा, बिहार की राजनीति में फिलहाल ऐसा समय है जब नीतीश कुमार के नेतृत्व पर सवाल उठ रहे हैं, और कई राजनीतिक दल अपने गठबंधन को लेकर विचार कर रहे हैं। इस परिस्थिति में चिराग पासवान के लिए यह सही मौका हो सकता है कि वे खुद को अगले मुख्यमंत्री के दावेदार के रूप में पेश करें।

सियासी समीकरण चाहे जैसे भी हों, चिराग पासवान का चुनाव मैदान में उतरना बिहार की राजनीति में नया अध्याय शुरू कर सकता है। उनके इस कदम से न केवल एनडीए की ताकतों में फेरबदल होगा, बल्कि अन्य दलों की रणनीतियों पर भी इसका गहरा असर पड़ेगा। बिहार की जनता भी इस बदलाव को बड़ी निगाह से देख रही है कि क्या चिराग पासवान नए चुनावी रणभूमि में अपनी राजनीतिक ताकत को साबित कर पाएंगे, या फिर यह केवल एक सियासी बयानबाजी तक सीमित रह जाएगी। आने वाले महीनों में यह सवाल बिहार की राजनीति का बड़ा मोड़ साबित होगा, जो भविष्य की सत्ता संरचना को निर्धारित करेगा।

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