चुनाव से पहले आयोगों के सहारे नीतीश का सियासी गणित शुरू

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

बिहार की राजनीति एक बार फिर गर्म है और इस बार सियासी तापमान को बढ़ाने का काम खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार कर रहे हैं। आगामी विधानसभा चुनावों की आहट के बीच नीतीश कुमार ने जिस तरह से आयोगों के गठन और उसमें खास व्यक्तियों की नियुक्तियों का ताबड़तोड़ सिलसिला शुरू किया है, उसने बिहार की राजनीति में शह-मात का खेल तेज कर दिया है। ऐसा लग रहा है कि 2020 में हुई राजनीतिक चूक को सुधारने के लिए नीतीश कुमार इस बार पहले से ही एक-एक चाल बिछाकर मैदान में उतरना चाहते हैं और इस रणनीति में उनका फोकस न सिर्फ जातिगत समीकरणों को दुरुस्त करने पर है, बल्कि एनडीए के भीतर अपनी राजनीतिक हैसियत को मजबूत करने पर भी है।

हाल के दिनों में नीतीश सरकार ने एक के बाद एक पांच बड़े आयोगों का गठन या पुनर्गठन किया है। इनमें अल्पसंख्यक आयोग, सवर्ण आयोग, अनुसूचित जाति आयोग, अनुसूचित जनजाति आयोग, महादलित आयोग और मछुआरा आयोग शामिल हैं। इन आयोगों की संरचना और इनमें नियुक्त किए गए चेहरों को देख कर साफ समझा जा सकता है कि नीतीश ने हर सामाजिक और राजनीतिक वर्ग को ध्यान में रखते हुए यह दांव चला है। इन नियुक्तियों का न सिर्फ जातीय प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करना मकसद है, बल्कि राजनीतिक संकेत देना और अपने सहयोगी दलों के नेताओं को संतुष्ट करना भी इसका अहम पहलू है।

नीतीश कुमार की सबसे चर्चित नियुक्ति अनुसूचित जाति आयोग में हुई है। इस आयोग के अध्यक्ष बनाए गए हैं मृणाल पासवान, जो चिराग पासवान के बहनोई हैं। मृणाल की नियुक्ति को चिराग को राजनीतिक रूप से साधने का प्रयास माना जा रहा है। 2020 के विधानसभा चुनावों में चिराग ने ‘बिहारी फर्स्ट, नीतीश हटाओ’ अभियान चलाकर जेडीयू को भारी नुकसान पहुंचाया था। अब जब चिराग एनडीए में लौटे हैं और केंद्र सरकार में मंत्री भी हैं, तो नीतीश यह सुनिश्चित करना चाहते हैं कि आगामी चुनाव में चिराग फिर से कोई अलग राह न अपनाएं। मृणाल पासवान की नियुक्ति से यह संदेश देने की कोशिश की गई है कि चिराग के परिवार को सरकार में सम्मानजनक स्थान मिला है और उनकी बातों को तवज्जो दी जा रही है।

इसी आयोग में उपाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति हुई है देवेंद्र मांझी की, जो पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान केंद्रीय मंत्री जीतन राम मांझी के दामाद हैं। देवेंद्र मांझी वही व्यक्ति हैं जिन्हें जीतन राम मांझी ने अपने मुख्यमंत्री काल में निजी सचिव बनाया था, जिस पर काफी विवाद भी हुआ था। अब उन्हें एक संवैधानिक पद पर नियुक्त कर नीतीश ने जीतन राम मांझी को भी साधने का प्रयास किया है। मांझी लंबे समय से राजनीतिक असंतोष प्रकट करते रहे हैं और समय-समय पर बीजेपी और जेडीयू दोनों पर दबाव बनाते रहे हैं। देवेंद्र मांझी की नियुक्ति यह संकेत है कि एनडीए का नेतृत्व अब मांझी को दरकिनार नहीं करना चाहता, बल्कि उन्हें बराबरी का सम्मान देकर गठबंधन को मजबूती देना चाहता है।

एक अन्य महत्वपूर्ण आयोग है मछुआरा आयोग, जिसे हाल ही में गठित किया गया है। आयोग के अध्यक्ष बनाए गए हैं पूर्वी चंपारण के ललन कुमार, जबकि उपाध्यक्ष बने हैं बक्सर के अजीत चौधरी। आयोग में सदस्य बनाए गए हैं समस्तीपुर के विद्यासागर सिंह निषाद, पटना के राजकुमार और भागलपुर की रेणु सिंह। निषाद समाज यानी मछुआरा समुदाय बिहार में करीब 7 फीसदी आबादी रखता है, जो कई विधानसभा सीटों पर निर्णायक भूमिका निभाता है। इस आयोग का गठन इस दृष्टिकोण से किया गया है कि इस समाज को सीधे तौर पर राजनीतिक प्रतिनिधित्व और नीति निर्धारण की प्रक्रिया में हिस्सेदारी दी जा सके।

इस कदम को लेकर विकासशील इंसान पार्टी (वीआईपी) के प्रमुख मुकेश सहनी ने नीतीश सरकार पर करारा हमला बोला है। सहनी, जो कभी एनडीए का हिस्सा थे, अब महागठबंधन में हैं और लगातार निषाद समाज के लिए आरक्षण की मांग करते रहे हैं। उन्होंने मछुआरा आयोग को चुनावी स्टंट बताते हुए सवाल उठाया है कि यदि सरकार को निषाद समाज की इतनी ही चिंता थी तो इतने वर्षों तक चुप क्यों रही? यह आरोप अपनी जगह, लेकिन नीतीश का यह राजनीतिक दांव साफ तौर पर वीआईपी के निषाद वोट बैंक में सेंध लगाने की कोशिश के रूप में देखा जा रहा है।

नीतीश कुमार की एक और चतुर चाल रही है अल्पसंख्यक आयोग का पुनर्गठन। आयोग के अध्यक्ष बनाए गए हैं मौलाना गुलाम रसूल बलियावी, जो जेडीयू के पुराने नेता रहे हैं और वक्फ संपत्ति कानून में बदलाव के खिलाफ मुखर रहे हैं। यह नियुक्ति ऐसे समय पर की गई है जब नीतीश पर यह आरोप लग रहे हैं कि उन्होंने केंद्र सरकार के मुस्लिम विरोधी कदमों का समर्थन किया है, जिससे मुस्लिम मतदाता नाराज हैं। बलियावी की नियुक्ति के साथ उपाध्यक्ष बनाए गए हैं मौलाना नूरानी, जो भी मुस्लिम समुदाय में अच्छा प्रभाव रखते हैं। इन दोनों की नियुक्ति इस संकेत के साथ की गई है कि जेडीयू अब मुस्लिम समुदाय की नाराजगी को दूर करने का प्रयास कर रही है और उन्हें सत्ता में भागीदारी देने की इच्छुक है।

इसके साथ-साथ सवर्ण आयोग और अनुसूचित जनजाति आयोग का गठन भी नीतीश की सामाजिक संतुलन साधने की योजना का हिस्सा है। सवर्ण आयोग के अध्यक्ष महाचंद्र सिंह और एसटी आयोग के अध्यक्ष शैलेंद्र कुमार को बनाया गया है। इन नियुक्तियों के जरिए उच्च जातियों और आदिवासी समुदाय को यह भरोसा दिलाने की कोशिश की गई है कि जेडीयू सबकी भागीदारी सुनिश्चित करने के सिद्धांत पर चल रही है।

नीतीश कुमार का यह पूरा राजनीतिक खेल इस बात का संकेत है कि वे इस बार कोई गलती नहीं दोहराना चाहते। 2020 में जेडीयू महज 43 सीटों पर सिमट गई थी और बीजेपी को बड़ी सफलता मिली थी। एनडीए की सरकार तो बनी, लेकिन नीतीश की स्थिति कमजोर रही। अब वे समझ चुके हैं कि सत्ता की स्टेरिंग दोबारा हासिल करने के लिए सभी मोर्चों पर मजबूती चाहिए चाहे वह जातीय समीकरण हों या गठबंधन के भीतर की ताकत। आयोगों के गठन और नियुक्तियों के जरिए वे हर वर्ग को साधने की रणनीति पर चल रहे हैं।

चिराग पासवान और मांझी को आयोगों के जरिए सम्मान देकर नीतीश न सिर्फ एनडीए में अपना स्थान मजबूत कर रहे हैं, बल्कि बीजेपी के साथ अपनी सौदेबाजी की ताकत भी बढ़ा रहे हैं। वहीं मुस्लिम, महादलित, मछुआरा, सवर्ण और आदिवासी समाज को प्रतिनिधित्व देकर वे सामाजिक संतुलन बना रहे हैं। यही नहीं, आयोगों के गठन का समय इस ओर भी संकेत करता है कि यह सबकुछ आगामी चुनाव को ध्यान में रखते हुए बड़ी ही सोच-समझ कर किया गया है।

हालांकि विपक्ष इन नियुक्तियों को ‘चुनावी झुनझुना’ करार दे रहा है और कह रहा है कि यह सब दिखावा है जो चुनाव बाद ठंडे बस्ते में चला जाएगा। लेकिन नीतीश कुमार का अनुभव और उनकी चुनावी समझ को देखते हुए इतना जरूर कहा जा सकता है कि वे इस बार पूरी तैयारी के साथ मैदान में उतर रहे हैं। आयोगों के जरिए उन्होंने एक ही तीर से कई निशाने साधे हैं राजनीतिक गठबंधन को मजबूती, सामाजिक संतुलन की साधना और विपक्ष को चुप कराने की रणनीति। अब देखना यह है कि यह सियासी शतरंज उन्हें चुनावी जीत की मंजिल तक पहुंचा पाती है या नहीं।

Related Articles

Back to top button