मोदी का मुखपत्र’ बन गया कांग्रेस का पूर्व सितारा?  

अजय कुमार,वरिष्ठ पत्रकार

कांग्रेस पार्टी के भीतर इन दिनों एक असहज सन्नाटा पसरा है, और इस सन्नाटे की वजह कोई और नहीं, बल्कि उसके ही चमकते सितारे शशि थरूर हैं। एक ऐसा चेहरा, जिसने भारत की विदेश नीति से लेकर सोशल मीडिया पर अंग्रेजी की धारदार प्रस्तुतियों तक में कांग्रेस को गर्व महसूस कराया, आज उसी पार्टी की आंखों की किरकिरी बन चुके हैं। थरूर के हालिया बयान, खासकर पनामा में दिया गया वह भाषण, जिसमें उन्होंने 2016 की सर्जिकल स्ट्राइक को ‘पहली बार LoC पार कर किया गया सैन्य कदम’ बताया, ने कांग्रेस की दीवारों को झकझोर कर रख दिया है। इस बयान से न केवल थरूर की पार्टी से दूरियां साफ दिखने लगी हैं, बल्कि यह भी संकेत मिलने लगे हैं कि थरूर अब कांग्रेस के लिए पहले जैसे नहीं रहे।

थरूर ने पनामा में जो कहा, वो शायद उन्होंने अपने अनुसार देश के गौरव के रूप में कहा, लेकिन पार्टी को यह बात नागवार गुजरी। कांग्रेस का दावा रहा है कि यूपीए सरकार के दौरान भी सर्जिकल स्ट्राइक हुई थीं, बस उनका प्रचार नहीं किया गया। ऐसे में थरूर का यह कहना कि 2016 में पहली बार LoC पार किया गया, न केवल कांग्रेस के आधिकारिक रुख को कमजोर करता है, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से मोदी सरकार की रणनीति को भी वैधता देता है। यहीं से शुरू होती है पार्टी के भीतर की खींचतान। कांग्रेस प्रवक्ता पवन खेड़ा ने ताबड़तोड़ प्रतिक्रिया दी, मनमोहन सिंह के पुराने बयानों को उद्धृत किया, और यह साबित करने की कोशिश की कि कांग्रेस भी पहले ऐसा कर चुकी है। लेकिन सबसे तीखा हमला उदित राज ने किया, जब उन्होंने थरूर को ‘मोदी का सुपर प्रवक्ता’ कह डाला। जयराम रमेश जैसे नेता जब इस तरह की टिप्पणियों को सार्वजनिक तौर पर शेयर करने लगें, तो यह साफ हो जाता है कि पार्टी का धैर्य अब जवाब देने लगा है।

शशि थरूर ने जब पलटवार किया तो उनके शब्दों में साफ झलकता था कि वह अब पार्टी की सीमाओं से परे सोचने लगे हैं। उन्होंने कहा कि वह एक भारतीय के नाते बोलते हैं, और ट्रोल्स या आलोचकों से बहस में समय नहीं गंवाना चाहते। लेकिन कांग्रेस के अंदरखाने के कुछ नेताओं को लगता है कि थरूर ने अब उस लक्ष्मण रेखा को पार कर लिया है, जहां से वापसी मुश्किल है। खासकर तब जब वह मोदी सरकार की आतंकवाद विरोधी नीति और ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयों की प्रशंसा करने लगें।

थरूर की यह स्वतंत्र राय रखने की आदत नई नहीं है। उन्होंने जब कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए मल्लिकार्जुन खड़गे के खिलाफ चुनाव लड़ा था, तब भी पार्टी के एक हिस्से ने उनकी इस ‘बगावती सोच’ को पसंद नहीं किया था। लेकिन तब भी वह पार्टी के भीतर थे, आज के हालात अलग हैं। अब उनके बयानों को पार्टी लाइन से अलग नज़रिए से नहीं, बल्कि विरोध के तौर पर देखा जाने लगा है। उनकी तारीफों को मोदी सरकार के पक्ष में एक ‘सॉफ्ट प्रोपेगैंडा’ के रूप में व्याख्यायित किया जा रहा है।

बीजेपी के नेता जैसे कि किरेन रिजिजू और अमित मालवीय ने थरूर के बयानों का समर्थन कर, कांग्रेस की मुश्किलें और बढ़ा दी हैं। रिजिजू ने कहा कि थरूर देशहित में बोल रहे हैं और कांग्रेस को अपने अंदर झांकना चाहिए। अमित मालवीय ने तो यहां तक कहा कि कांग्रेस अब देशभक्ति के बुनियादी मुद्दों पर भी बंट चुकी है। थरूर के लिए यह समर्थन दोनों तरफ से तलवार की धार की तरह है एक ओर वह बीजेपी का समर्थन नहीं चाहते, दूसरी ओर कांग्रेस का अविश्वास उन्हें अंदर ही अंदर कमजोर कर रहा है।

शशि थरूर की छवि एक वैश्विक नेता की रही है संयुक्त राष्ट्र से लेकर ऑक्सफोर्ड यूनियन तक, हर मंच पर उन्होंने भारत की ओर से बुद्धिमत्ता और शालीनता की मिसाल पेश की है। सोशल मीडिया पर उनकी उपस्थिति मजबूत है, और उनकी किताबें उन्हें एक सोचने वाला नेता बनाती हैं। यही स्वतंत्रता, यही विशिष्टता, अब कांग्रेस के भीतर संदेह के घेरे में आ गई है। खासकर केरल में उनकी लोकप्रियता और संभावित मुख्यमंत्री पद की दावेदारी के कारण पार्टी के कुछ सत्ताधारी गुट असहज हो उठे हैं। राहुल गांधी के करीबी माने जाने वाले केसी वेणुगोपाल जैसे नेताओं को यह डर सता रहा है कि थरूर कहीं यूडीएफ में नया चेहरा बनकर न उभर जाएं।

मनीष तिवारी, आनंद शर्मा जैसे नेताओं ने भी समय-समय पर मोदी सरकार की नीतियों की तारीफ की है, लेकिन उन पर कभी इतना तीखा हमला नहीं हुआ जितना थरूर पर हो रहा है। इसकी एक बड़ी वजह यह भी है कि तिवारी और शर्मा जैसी नेताओं की सीमाएं क्षेत्रीय हैं, जबकि थरूर की छवि राष्ट्रीय और वैश्विक दोनों है। उनका X (ट्विटर) पर प्रभाव, विदेशों में भारतीय समुदाय से संवाद, और मीडिया में लगातार उपस्थिति, उन्हें कांग्रेस के पारंपरिक ढांचे से बाहर एक नया चेहरा बनाती है। यही कारण है कि अब पार्टी उन्हें ‘काबू’ करने की कोशिश कर रही है।

कांग्रेस के लिए यह स्थिति आसान नहीं है। अगर वह थरूर जैसे नेताओं को नजरअंदाज करती है, तो वह अपनी ही ‘बौद्धिक पूंजी’ खो बैठती है। और अगर वह उन्हें खुलकर बोलने देती है, तो पार्टी लाइन कमजोर होती है। इस दुविधा में पार्टी अब थरूर को या तो किनारे लगाएगी, या थरूर खुद ही उस मोड़ की ओर बढ़ेंगे जहां से लौटना मुमकिन नहीं होगा।

अभी के हालात यह इशारा करते हैं कि कांग्रेस के अंदर गुटबाजी अब केवल विचारधारा की नहीं, बल्कि नेतृत्व की है। कुछ नेता थरूर को पार्टी का ‘लिबरल फेस’ मानते हैं, तो कुछ उन्हें ‘डिसेंटर्स’ की लिस्ट में डाल चुके हैं। एक समय था जब थरूर को कांग्रेस का भविष्य कहा जाता था, आज उन्हें ‘मोदी का सुपर स्पोक्स्पर्सन’ कहा जा रहा है। यह परिवर्तन केवल थरूर के बयानों से नहीं आया, बल्कि यह कांग्रेस की आंतरिक कमजोरी और नेतृत्व की असुरक्षा को भी उजागर करता है।

आखिर में सवाल यही है कि क्या शशि थरूर अब भी कांग्रेस के भीतर सुरक्षित हैं? क्या वह राहुल गांधी की उस कांग्रेस में जगह बना पाएंगे जो वफादारी की कसौटी पर सब कुछ तौलती है? या फिर वह उस मोड़ पर पहुंच चुके हैं जहां से आगे का रास्ता उन्हें किसी और राजनीतिक मंज़िल तक ले जाएगा? इन सवालों के जवाब फिलहाल हवा में हैं, लेकिन इतना तय है कि कांग्रेस के लिए थरूर अब पहले जैसे नहीं रह गए।

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