तमिलनाडु में अगले चरण में भाषा विवाद

उमेश चतुर्वेदी
तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन की ओर से उठाए गए भाषा विवाद की गेंद को प्रधानमंत्री मोदी ने राजनीतिक समझदारी के साथ उनके ही पाले में डाल दी है। तमिलनाडु की हालिया यात्रा में उन्होंने कह दिया कि तमिल राजनेता अपना हस्ताक्षर अंग्रेजी की बजाय तमिल में क्यों नहीं करते। लगे हाथों उन्होंने यहां तक कह दिया कि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री स्टालिन को मेडिकल की पढ़ाई तमिल में करानी चाहिए। तमिलनाडु में हिंदी को लेकर विवाद शुरू से ही रहा है, हाल ही में स्टालिन सरकार ने अपना बजट पेश करते वक्त बजट से रूपए के आधिकारिक हिंदी प्रतीक की विदाई और तमिलभाषा वाले प्रतीक का इस्तेमाल किया था। जिस पर हंगामा होना स्वाभाविक है। अब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने तमिलनाडु में भाषा को लेकर नया बयान दे दिया है। हो सकता है कि तमिल राजनीति इसका फिर से आक्रामक जवाब दे, लेकिन प्रधानमंत्री के सवाल के बाद तमिल राजनीति के लिए जवाब देना मुश्किल होगा..क्योंकि तमिल का प्रश्न उठाकर एक तरह से प्रधानमंत्री ने तमिल राजनीति को स्थानीयता के ही मुद्दे पर कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की है।
दक्षिण में तमिलनाडु इकलौता राज्य है, जिसकी राजनीति तकरीबन सभी ज्वलंत मुद्दों पर बनी राष्ट्रीय सहमति से अलहदा कदम उठाती रही है। श्रीलंका के लिट्टे विद्रोहियों का मसला, हिंदी विरोध और लोकसभा सीटों के परिसीमन के मुद्दे, तमिल राजनीति राष्ट्रीय सहमति से अलग सोचती रही है। इस तरह उसने अपना एक अलग तमिल नैरेटिव रचा। रूपए के प्रतीक का तमिलकरण और हिंदी विरोध की ताजा सोच, अतीत के तमिल नैरेटिव का ही विस्तार है।
सबसे पहले आज के दौर की राजनीतिक मंशा को समझना जरूरी है। मौजूदा राजनीति का हर नया कदम और नई राजनीतिक नैरेटिव बनाने की कोशिश के परोक्ष और प्रत्यक्ष, दो उद्देश्य हैं। पहला मकसद जहां तुरंत जनभावनाओं को अपने पक्ष में मोड़कर सियासी फायदा उठाना होता है, वहीं इनके सहारे भविष्य के लिए अपनी मजबूत सियासी इमारत खड़ा करना भी रहती है। तमिलनाडु सरकार के हालिया कदमों का तात्कालिक कारण है अगले साल होने वाला विधानसभा चुनाव। इन मुद्दों के जरिए डीएमके अपने पक्ष में माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। चूंकि ये मुद्दे तकरीबन आठ दशकों से डीएमके की राजनीतिक फसल के खाद का काम करते रहे हैं, इसलिए स्टालिन को एक बार फिर इसी पर भरोसा है।
संविधान के मुताबिक, भारत भले ही राज्यों का संघ हो, लेकिन राज्यों को राष्ट्रीय मुद्दों से अलग राह, जिनमें अलगाववाद के खतरे हों, किसी भी कीमत आगे बढ़ने की छूट नहीं है। संविधानसभा की बहस के दौरान राज्यों के ऐसे कदमों की आशंका को देखते हुए ही मजबूत केंद्र की अवधारणा को स्वीकार किया गया। इसके बावजूद यदा-कदा कई राज्य राष्ट्रीय सोच से अलग रूख अख्तियार करते रहते हैं। हाल के दिनों में इस कोशिश में पश्चिम बंगाल भी जुड़ा, जहां से राष्ट्रवादी विचारधारा को बल मिला। अरसे से कई मुद्दों पर अलग रूख अख्तियार करते वक्त तमिल राजनीति भारतीयता के अभिन्न अंग् तमिल की अवधारणा और संविधान की सोच को दरकिनार करती रही है।
तमिलनाडु में हिंदी विरोध 1935 में डीएमके के वैचारिक उभार के साथ ही शुरू हुआ। तब भी यह सोच राष्ट्रीय युगबोध से अलग थी। तमिलनाडु में पहले क्रांतिकारी सोच के नाम पर ब्राह्मण विरोध की शुरूआत हुई, जिसका अगला कदम हिंदी विरोध रहा। अब यह सोच एक तरह से उत्तर भारत विरोध तक पहुंच चुकी है। दिलचस्प यह है कि इसमें कई बार कांग्रेस जैसी राष्ट्रीय पार्टी भी मददगार होती रही है। 2023 के विधानसभा चुनावों में छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बीजेपी और तेलंगाना में कांग्रेस को मिली जीत के बाद नया नैरेटिव गढ़ा गया था। जिसके मुताबिक, गोबर पट्टी के राज्यों को पिछड़ा और दक्षिणी राज्यों को समझदार बताया गया। यानी जो बीजेपी को चुने, वह पिछड़ा और जो कांग्रेस को चुने, वह प्रगतिशील। इस नैरेटिव के जरिए उत्तर और दक्षिण के बीच गहरी विभाजन रेखा खींचने की कोशिश हुई। लोकसभा सीटों के परिसीमन को लेकर द्रविड़ राजनीति की ओर से उठाए जा रहे सवालों में इसके विस्तार को देखा जा सकता है।
अपनी अलहदा सोच के लिए अतीत में डीएमके को कीमत भी चुकानी पड़ी है। 1991 में तत्कालीन चंद्रशेखर सरकार ने करूणानिधि सरकार को कुछ ऐसी ही वजहों से बर्खास्त किया था। डीएमके करीब दो दशक से कांग्रेस की सहयोगी है, लेकिन अतीत में एक बार वह भी डीएमके की ऐसी सोच के चलते केंद्र की गुजराल सरकार को गिरा चुकी है। अभी चाहे हिंदी का सवाल हो या फिर रूपए के प्रतीक को बदलने की बात, डीएमके के रूख पर कांग्रेस ने फिलहाल चुप्पी साध रखी है। ऐसा लगता है कि इन मुद्दों पर कांग्रेस की स्थिति सांप और छछूंदर जैसी हो गई है। अगर वह डीएमके का विरोध करती है तो उसे अपने स्थानीय समर्थकों के छिटकने का डर है और यदि समर्थन करती है तो उत्तर भारत में उसकी उम्मीदें बिखर सकती हैं। लेकिन बीजेपी ने आक्रामक रूख अपना रखा है। रूपए का हिंदी प्रतीक बदलने का सबसे तेज विरोध तमिल मूल की निर्मला सीतारमण और राज्य बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष अन्नामलाई कर रहे हैं। उनका साथ उनकी पूर्ववर्ती तमिलसाई सौंदर्याराजन दे रही हैं। बीजेपी की कोशिश है, स्टालिन के हिंदी विरोध की हवा तमिल सोच के जरिए निकालने की है। इसका आधार जोहो कंपनी प्रमुख श्रीधर वेंबु हिंदी समर्थन में बयान देकर मुहैया करा चुके हैं।
अगले साल अप्रैल-मई में तमिलनाडु में विधानसभा चुनाव होने हैं। 2021 के चुनाव में दशकभर बाद डीएमके को सत्ता मिली थी। स्टालिन इसे ही बचाए रखने की जुगत में हैं। उत्तर और हिंदी विरोधी माहौल जिंदा रखकर स्थानीय भावनाओं को उभारना तमिलनाडु का आसान राजनीतिक फार्मूला रहा है। त्रिभाषा फ़ॉर्मूले में हिंदी विरोध स्टालिन को सबसे आसान लगा और वे मैदान में कूद पड़े। जनसंख्या के लिहाज से लोकसभा सीटों का परिसीमन में कम होना और रूपए का प्रतीक बदलना इसी का विस्तार है।
1937 में पेरियार के हिंदी विरोधी आंदोलन को तकरीबन समूचे तमिल समुदाय का समर्थन मिला। 1965 में जब संवैधानिक प्रावधानों के चलते हिंदी राजभाषा बन रही थी, तब सीए अन्नादुरै की अगुआई वाले हिंदी विरोधी तीखे आंदोलन को समूचे तमिलनाडु का साथ मिला। इसके दो साल बाद हुए विधानसभा चुनावों में कांग्रेस को सत्ता गंवानी पड़ी, तब से कांग्रेस राज्य में हाशिए पर ही है। इस बार हिंदी विरोध या रूपए के प्रतीक बदलने की तरकीब को तकरीबन समूचे तमिल समुदाय का साथ मिलता नहीं दिख रहा। इसकी बड़ी वजह यह है कि तमिल समुदाय भी अब भाषा की राजनीति और उसके दायरे को समझने लगा है। संचार क्रांति के जरिए उसे भी पता है कि स्टालिन द्वारा उठाए जा रहे मुद्दों की खामी-खासियत क्या है? तमिल समुदाय के एक हिस्से की समझ बनी है कि उनकी सरकार का विरोध एक बिंदु पर राष्ट्रीय धारा के विपरीत हो सकता है। अब तमिलनाडु में भी लोग मिलने लगे हैं, जिन्हें हिंदी विरोध राजनीतिक शिगूफा लगता है। स्टालिन जिस तरह तेजी से एक के बाद एक मुद्दे उछाल रहे हैं, उससे उन्हें और उनके सलाहकारों को लगता है कि हिंदी विरोध हो या परिसीमन की मुखालफत को बड़ा और गहरा समर्थन नहीं मिल रहा है।
पिछले लोकसभा चुनाव में बीजेपी राज्य में अपना खाता नहीं खोल पाई, लेकिन उसका गठबंधन राज्य में 18.2 प्रतिशत वोट हासिल करने में कामयाब रहा। इसमें बीजेपी का वोट 11 प्रतिशत रहा। जबकि पहले उसे तीन से पांच प्रतिशत तक ही वोट मिलता रहा। जाहिर है कि बीजेपी राज्य में अपनी जड़ें जमा रही है। बीजेपी राज्य में स्थानीय की बजाय राष्ट्रीय मुद्दों के साथ पहुंच रही है। यह भी वजह है कि स्टालिन ठेठ और आक्रामक स्थानीय मुद्दों को उभारने की कोशिश कर रहे हैं। अतीत में हिंदी और उत्तर भारत विरोध स्थानीय लोगों को गोलबंद करने का आसान जरिया रहे। इन मुद्दों पर सियासी बैटिंग डीएमके के लिए परिचित पिच रही है। इस पिच पर एक बार फिर सियासी बैंटिंग करना उसे आसान लग रहा है। बीजेपी ने भी पिच तो वही अपनाई है, लेकिन उसके मुद्दे अलहदा हैं। राष्ट्रीय मुद्दे बनाम स्थानीय सोच की इस जंग में फिलहाल देश का दक्षिण कोना घायल होता नजर आ रहा है। इस पर रोक लगाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सोच बननी जरूरी है। अन्यथा ऐसी राजनीति के दंश का दर्द अरसे तक झेलना पड़ सकता है।-
उमेश चतुर्वेदी, लेखक वरिष्ठ पत्रकार और राजनीतिक समीक्षक हैं।
(इस लेख में लेखक के अपने विचार हैं।)