राहुल की ‘बिहार एंट्री’ से महागठबंधन में खलबली क्या तेजस्वी आउट, कन्हैया इन?

बिहार की सियासत एक बार फिर करवट ले रही है, लेकिन इस बार आवाज़ सिर्फ सत्ता के गलियारों से नहीं, बल्कि उन सड़कों से उठ रही है, जहां युवा हताश हैं, जहां उम्मीदें अभी भी रोज़गार के वादों से बंधी हैं और जहां एक नेता खामोशी को चुनौती देने निकल पड़ा है। राहुल गांधी की बिहार यात्रा केवल एक राजनीतिक दौरा नहीं है, बल्कि यह संकेत है कि कांग्रेस अब महज गठबंधन की पूरक नहीं, बल्कि खुद को एक विकल्प के तौर पर फिर से स्थापित करना चाहती है। ‘पलायन रोको, नौकरी दो’ यात्रा, जिसमें राहुल गांधी कन्हैया कुमार के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रहे हैं, सिर्फ चुनावी फोटोशूट नहीं, बल्कि बिहार के युवाओं के टूटते सब्र की राजनीतिक अभिव्यक्ति है।
बिहार देश का एक ऐसा राज्य है जो हर चुनाव में बड़ी भूमिका निभाता है लेकिन हर बार वही सवाल सामने आता है क्या बिहार को कभी स्थायी नेतृत्व मिलेगा? आंकड़े बताते हैं कि हर साल राज्य से लगभग 15 लाख युवा रोज़गार की तलाश में दिल्ली, पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र जैसे राज्यों की ओर पलायन करते हैं। सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (CMIE) की रिपोर्ट के मुताबिक बिहार की बेरोज़गारी दर 2024 में लगभग 17.2% थी, जो राष्ट्रीय औसत 7.8% से दोगुनी है। यह केवल एक सामाजिक समस्या नहीं, बल्कि राजनीतिक विफलता का नमूना है। ऐसे में राहुल गांधी का कन्हैया कुमार की यात्रा में शामिल होना एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक है।
राहुल गांधी ने भारत जोड़ो यात्रा से यह साबित किया कि वह ज़मीनी मुद्दों पर जनता से सीधे संवाद करने में यकीन रखते हैं। अब बिहार की सड़कों पर उतरकर उन्होंने अपनी रणनीति को विस्तार दिया है। कन्हैया कुमार, जो कभी जेएनयू विवाद के केंद्र में रहे, अब कांग्रेस की नयी पीढ़ी के चेहरे के तौर पर उभर रहे हैं। भूमिहार समुदाय से आने वाले कन्हैया को सामाजिक स्वीकृति अभी भी पूरी तरह नहीं मिली है, लेकिन उनकी भाषण शैली, छात्रों और युवाओं से जुड़ाव, और ज़मीनी मुद्दों की समझ उन्हें भीड़ में अलग बनाती है। राहुल गांधी का उनके साथ बेगूसराय की सड़कों पर चलना इस बात का प्रतीक है कि कांग्रेस अब नए चहरों पर भरोसा करने को तैयार है।
बेगूसराय का चयन भी एक सोच-समझी रणनीति का हिस्सा है। 1991 में राजीव गांधी ने भी लोकसभा चुनाव से पहले बेगूसराय का दौरा किया था। अब जब राहुल गांधी उसी ज़मीन पर पदयात्रा करते हैं, तो यह केवल प्रतीकवाद नहीं, बल्कि एक विरासत की पुनरावृत्ति है। राहुल गांधी को उम्मीद है कि बिहार की युवा आबादी, जो राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 58% है, उसके भीतर कांग्रेस फिर से जगह बना सके।
2020 के बिहार विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को 70 सीटों पर लड़ने का मौका मिला था, लेकिन वो केवल 19 सीटें ही जीत सकी। इसका सबसे बड़ा कारण टिकट वितरण से लेकर रणनीति तक आरजेडी की प्रधानता रही। अब कांग्रेस इसे दोहराना नहीं चाहती। यही वजह है कि राहुल गांधी के बिहार दौरे के ठीक पहले कांग्रेस नेताओं की लालू यादव और तेजस्वी यादव से अलग-अलग मुलाकातें हुईं, जिसने सियासी हलचलों को और तेज कर दिया। इन मुलाकातों ने यह संकेत दिया कि कांग्रेस अब गठबंधन में रहते हुए भी अपनी स्वतंत्र आवाज़ बनाना चाहती है।
राहुल गांधी के इस दौरे में सबसे बड़ा संदेश यह है कि कांग्रेस अब बैकफुट पर नहीं रहना चाहती। चाहे गठबंधन में रहे या उससे बाहर, पार्टी खुद को निर्णायक भूमिका में देखना चाहती है। और यही वह परिवर्तन है जो बिहार की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दे रहा है। क्या कांग्रेस तेजस्वी यादव के नेतृत्व को फिर से स्वीकार करेगी? क्या गठबंधन में सीटों के बंटवारे में इस बार कांग्रेस की शर्तें चलेंगी? या फिर कांग्रेस अकेले अपने दम पर तीसरा विकल्प बनने की ओर बढ़ेगी?
यात्रा के आंकड़े भी कम दिलचस्प नहीं हैं। कांग्रेस के अनुसार, 38 जिलों में हुई इस यात्रा में लगभग 10 लाख से ज्यादा युवाओं ने भाग लिया। ‘रोजगार चौपाल’ के ज़रिए 3 लाख से अधिक युवा सीधे कांग्रेस के संपर्क में आए। सोशल मीडिया पर इस यात्रा से जुड़े वीडियो, ट्वीट्स और लाइव स्ट्रीमिंग को कुल मिलाकर 2 करोड़ से ज्यादा बार देखा गया। यह न केवल एक अभियान की सफलता है, बल्कि एक जनांदोलन का प्रारंभ भी है।
अखिलेश सिंह की जगह दलित समुदाय से आने वाले राजेश कुमार को प्रदेश अध्यक्ष बनाना इसी सोच का परिणाम है। दिलचस्प बात यह है कि राजेश कुमार और कन्हैया दोनों ही युवा हैं और अलग-अलग सामाजिक वर्गों से आते हैं। यह कांग्रेस की सोशल इंजीनियरिंग का नया मॉडल हो सकता है एक तरफ दलित नेतृत्व, दूसरी ओर ऊंची जातियों से आने वाला एक प्रखर वक्ता और छात्र आंदोलन का चेहरा।
महागठबंधन की राजनीति में यह समीकरण आरजेडी के लिए चुनौती बन सकते हैं। तेजस्वी यादव को अब तक मुख्यमंत्री पद का सर्वसम्मत चेहरा माना जाता रहा है, लेकिन कांग्रेस अब इस मुद्दे पर खुलकर बात करने से बच रही है। पप्पू यादव का यह बयान कि कांग्रेस अध्यक्ष राजेश कुमार को मुख्यमंत्री पद के लिए उपयुक्त चेहरा माना जाना चाहिए, सिर्फ व्यक्तिगत राय नहीं, बल्कि एक राजनीतिक संकेत है। यह वही पप्पू यादव हैं, जिन्हें न तो आरजेडी पसंद करती है और न ही कांग्रेस अब तक खुलकर साथ दे पाई है। लेकिन बदलते समीकरणों में कांग्रेस को हर वो विकल्प देखना पड़ रहा है जो उसे तेजस्वी यादव के मुकाबले एक नई राह दे सके।
पप्पू यादव के बयान की टाइमिंग भी गौर करने लायक है जब राहुल गांधी बिहार दौरे पर हैं और कांग्रेस महागठबंधन में रहकर भी अपने स्वतंत्र रुख को दिखा रही है। यह बयान तेजस्वी यादव के लिए चेतावनी की तरह है कि कांग्रेस अब सिर्फ सहयोगी पार्टी नहीं, बल्कि शक्ति संतुलन की दावेदार है।
कन्हैया कुमार को लेकर कांग्रेस की रणनीति साफ है। कांग्रेस उन्हें भविष्य के चेहरे के रूप में तैयार कर रही है। जेएनयू की घटना के बाद उनके खिलाफ देशद्रोह का मुकदमा भले ही उनके राजनीतिक करियर की राह में बाधा बना, लेकिन वक्त के साथ न केवल जनता की धारणा बदली है, बल्कि कन्हैया की स्वीकार्यता भी बढ़ी है। अब उन्हें भूमिहार समाज से भी समर्थन मिलने लगा है, जो पहले पूरी तरह उनसे कट चुका था। यह कांग्रेस के लिए बड़ी राजनीतिक पूंजी हो सकती है, खासकर उन इलाकों में जहां जातीय समीकरण निर्णायक भूमिका निभाते हैं।
राहुल गांधी का यह पूरा अभियान इस संदेश को दोहराता है कि कांग्रेस अब सिर्फ सत्ता के लिए नहीं, बल्कि बदलाव के लिए लड़ना चाहती है। भारत जोड़ो यात्रा के बाद यह बिहार यात्रा राहुल की छवि को एक संघर्षशील नेता के तौर पर और मजबूत करती है। और बिहार की सियासत, जो लंबे समय से दो ध्रुवों में बंटी रही है अब उसमें कांग्रेस तीसरे विकल्प के रूप में उभरने की पूरी कोशिश कर रही है।
अगर कांग्रेस आने वाले चुनावों में इसी लय को बनाए रखती है, और युवाओं के मुद्दों, रोजगार, शिक्षा और सामाजिक न्याय को लेकर गंभीर दृष्टिकोण अपनाती है, तो कोई आश्चर्य नहीं होगा कि बिहार की राजनीति में एक बार फिर कांग्रेस की वापसी हो। लेकिन राह आसान नहीं है आरजेडी की राजनीतिक पकड़, बीजेपी का मजबूत आधार, और जेडीयू की चतुर चालों के बीच कांग्रेस को अपनी जमीन खुद बनानी होगी। और इसी लड़ाई में राहुल गांधी की यह यात्रा पहला मजबूत कदम साबित हो सकती है।